- देश भर के कहानीकार करेंगे शिरकत
- कथा पोस्टर तथा चित्र प्रदर्शनी लगेगी
देश का प्रतिष्टित साहित्यिक आयोजन 'संगमन-14' इस बार संगीत सम्राट तानसेन की नगरी ग्वालियर में आयोजित किया जा रहा है । 10 से 12 अक्तूबर तक आयोजित होने वाले इस तीन दिवसीय कार्यक्रम में देश के लब्ध प्रतिष्टित कहानीकार व विचारक शिरकत कर रहे हैं।
चिंतन के विषय - तीन दिवसीय इस कार्यक्रम को अलग -अलग सत्रों में बांटा गया है। पहला सत्र 10 अक्तूबर को दोपहर 2 बजे से शाम 6 बजे तक आयोजित किया जायेगा। इस सत्र में "स्वतंत्र भारत का यथार्थ और मेरी प्रिय किताब" विषय पर चर्चा होगी। 11 अक्तूबर को सुबह 10 बजे से 2 बजे तक के सत्र में "बदलता यथार्थ और बदलती अभिव्यक्ति " विषय पर विमर्श किया जायेगा। 12 अक्तूबर को सुबह 10 बजे से आयोजित सत्र में कहानीकार अरुण कुमार असफल अपनी कहानी 'पॉँच का सिक्का' व उमाशंकर चौधरी "दद्दा, यानि मदर इंडिया का शुनील दत्त" का पाठ करेंगे। तीन दिवसीय इस कार्यक्रम में कथा पोस्टर प्रदर्शनी व हिंदी तथा उर्दू के लगभग दो सौ लेखकों की चित्र प्रदर्शनी विशेष आकर्षण का केंद्र रहेगी । संगमन के स्थानीय संयोजक व वरिष्ठ कथाकार महेश कटारे की अगुआई में यह कार्यक्रम ग्वालियर के सिटी सेंटर स्थित राज्य स्वस्थ्य एवं संचार संस्थान में आयोजित किया जा रहा है।
प्रतिभागी- कार्यक्रम में देश के लगभग 40 वरिष्ठ साहित्यकार शामिल हो रहे हैं जिसमें डॉ. कमला प्रसाद, गोविन्द मिश्र, विष्णुनागर, गिरिराज किशोर, मंजूर एहतेशाम, पुन्नी सिंह, प्रभु जोशी, प्रकाश दीक्षित, अमरीक सिंह दीप तथा पंकज बिष्ट के नाम शामिल हैं। स्थानीय स्तर पर कथाकार ए. असफल, राजेंद्र लहरिया तथा जितेंद्र बिसारिया सहित कई अन्य साहित्यकार शामिल होंगे।
संपर्क- आयोजन के सन्दर्भ में और जानकारी "संगमन" के संयोजक व वरिष्ठ साहित्यकार प्रियंवद से मोबाईल न. 09839215236 अथवा 0512-2305561 पर प्राप्त की जा सकती है। ग्वालियर में महेश कटारे 09425364213 पवन करण 09425109430 अथवा अशोक चौहान से 09893886914 पर संपर्क किया जा सकता है।
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4 घंटे पहले
11 टिप्पणियां:
आयोजन की सफ़लता के लिए शुभकामनाऎं।
बेहद रोमांचक लगता है सुन के .... मुझे उम्मीद है सोच से बाद कर ही होगा यह आयोजन :)
हिंदुस्तान में कहानी मर रही है. क्योंकि कहानी का विषय और उसे कहने का ढंग तथाकथित रूप से तथाकथित यथार्थवादी होता जा रहा है. जहाँ जीवन होगा वहां रस होगा. जीवन यथार्थ है और वह निष्प्राण या नीरस नहीं हो सकता. पर हमारे कहानीकार साथी 'अद्भुत की सर्जना' के लोभ में निष्प्राण देह में उत्तेजना और लालित्य खोज रहे हैं. प्रगतिशील मन्त्र की सिद्धि के लिए शव साधना कर रहे हैं. अभी इस देश में अभी कहानी कहने की देशी तकनीक को ठीक तरीके से नहीं पहचाना, समझा और सराहा गया है. इस पर ठीक से विचार करने की आवश्यकता है. कहानी के पाठक क्यों कम हुए हैं, इसे समझने की जरुरत है. हमने सरोकारों के प्रति प्रतिबद्धता को दर्शाने के लिए सरसता को कहानी का अस्पृश्य अवयव क्यों मान लिया है? भारत का यथार्थ भारतीय परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है या यह यथार्थ उत्तर आधुनिकता की कसौटी पर कसा जायेगा? देखते हैं यह आयोजन बौद्धिकों की कहानी को लेकर सच्ची पीड़ा के विमर्श का सोपान बनता है अथवा मुमर्शु कहानी का एक और सन्निपाती बयान.
राहुल त्रिपाठी
"भूमि"
09425724603
bhadhai or shubhkamna, khani jarur likhna
kahani ka yah kumbh nischit tour par safal hoga.
rahul ji ka vilaap swabhaawik hai. jinhe yatharth se khatara hota hai aur itihaas se bhay ve ras ki talaash me bhatakte hi rahate hain. jab charon taraf khoon ho to ras ki talaash niro hi kar sakte hain.
bhartiya kahaani par baat karane vale agar isake kam paathakon ki shikaayat karte hain to sirf hansaa ja sakataa hai. vaise paathak to un rashtravaadi geeton aur kahaniyon ke aur bhi kam hain jiname hasya aur veer ras antatah karun aur roudra ras me badal jata hai.bhartiya pragatisheel kahani ne aam jan ke pax me jo awaaz buland ki hai vah adhbhut hai bhartiya parampara kisee ki bapouti nahi isme charvaak bhi hain kabeer bhi aur premchand bhi han khaaki kachhaa sidhe Hitler se udhaar liya gaya tha aur kaali topi musolini se!
तथाकथित प्रगतिवादियों ने अपनी बात कहने और लिखने का एक विशेष ढंग और शैली ईजाद की है. आपसे रस की अपेक्षा तो मैंने की नहीं. अगर फितरत अदीब की हो और खून जेहन में हो तो जुबान में और कलम में उतरता ही है.खैर.
इतिहास से भय उन्हें होगा जिनका इतिहास होगा. यथार्थ से खतरा उन्हें होगा जो यथार्थ के बीचोंबीच होंगे. आप न यथार्थ में जीते हैं और न इतिहास रचते हैं. पर परजीवी भी जीता तो है ही. सो उधारी की सोच के धनी प्रगतिशीलों का टके पर टिका विमर्श हमारे यथार्थ और इतिहास की नांद में मुंह गडाये हुए है. तुलना करने के लिए भी रोम, इटली और जर्मनी भागना पड़ता है.
भारतीय परंपरा तो वाकई किसी की बपौती नहीं है और न ही हमारा इस पर कोई दावा है. पर शायद प्रगतिशीलता आप लोगों को उत्तरदान में प्राप्त हुई है.
राष्ट्रवादी जन की पहचान जन के रूप में करते हैं. प्रगतिशील, जो रस असिद्ध होने का दावा करते हैं, जन को रसराज रसाल आम के साथ जोड़ते हैं. प्रिय अशोक जी आपके नीरस भावः जगत में मेरी टिप्पणी कुछ हास्य उत्पन्न कर पाई, इसके लिए मैं बधाई का पात्र हूँ.
आपको स्मरण करा दूं कि मैं संघी नहीं हूँ. यह सफाई नहीं सिर्फ सूचना है.
राहुल त्रिपाठी
भूमि
9425724603
bhai mere
bahas ke liye yehi jagah milee to yehi sahi.
aapne theek kaha har vichar ko ek khaas shailee ki zarurat hoti hai jaise aapko zarurat padati hai bozhil, ubau aur panditau bhasha ki aur hame chahiye hoti hai tez,teekhi aur tanz se bhari pratirodh ki bhasha.
vaise parjeevi koun hota hai? fund ke funde par dukan kholakar banko me vichoron ki leed ekatra karne vala samajsevi yaa fir janta ke pax me sabhi pralobhano ko thenge par rakhar sangharshrat kalam ka sipahi.
itihaas ham hi rachte hain bhai. racha hai yahan bhi aur vahan bhi.vichaar kisee seema me nahi badhante.muze jack london pasand hai to meri latin american dost ko tagore lekin ise samazane ke liye naliyon se sankre nahi mahasagar se viraat manas ki zarurat hoti hai jo kisi dukan par nahi milata sangharshon se arjit kiya jata hai.
vaise aap shayad itihaas ke vidyarthi rahe hain to rashtravaad kahan paida hua tha? aur yeh rashtravaadi jan ki pahchaan jan ke roop me nahi us cheez ke roop me karte hain jiski jaan kisi amurt rashtra ke naam par apne hit me kabhi bhi li ja sake.
aapki safai anapexit aur anavashyak hai..hum koun hain hain yeh itihaas tay karega.
आप बहुत व्यक्तिगत होकर लिख रहे हैं अशोक जी. पर कोई बात नहीं. कम से कम इस बहाने आपका विराट मानस 'विचारों की लीद' से निवृत्त तो हुआ. भाषा में संस्कृति झलकती है. आप जिस तेज, तीखी और तंज भाषा के प्रतिनिधि हैं उसे हम 'गाली' कहते हैं और उससे झलकती संस्कृति को 'गलीज़'. गाली 'हताशा' की प्रवक्ता है, प्रतिरोध की नहीं.
आयातित विचारों को ढोने वाले 'कलम पर बोझ' हुआ करते हैं, 'कलम के सिपाही' नहीं. बंधु 'बौद्धिक' दिखने का प्रलोभन कोई कम तो नहीं, जिसके लिए प्रगतिशील बुद्धिजीवी होने का स्वांग भरा करते हैं.
बात तो सही है कि विचार सीमा में नहीं बंधते और उन्हें बंधना भी नहीं चाहिए. पर अपनी जमीन उर्वर हो तभी उसमें दूसरी जमीन का पौधा रोपा जा सकता है. बाँझ जमीन पर गमला ही रखा जा सकता है. लेकिन गमले में लहराते पौधे के आधार पर बाँझ जमीन प्रसूता होने का दावा नहीं कर सकती. प्रगतिशीलों के 'बाँझ दिमाग' ऐसे गमलों से सजे हुए हैं और ये 'बाँझ दिमाग' उर्वर होने का दावा करते घूम रहे हैं.
राष्ट्र अमूर्त धारणा नहीं सत्य भावना है और आप उससे वंचित हैं. इतिहास तो बाद में तय करेगा कि आप कौन हैं, पर वर्तमान ने बता दिया है कि आप क्या हैं.
खैर. मुझे आपकी भाषा से कोई शिकायत नहीं है. आग खाते हैं तो अंगारे तो उगलेंगे ही.
bhai mere,
aapko meri baat vyaktigat lagi! maine to sirf pravirtiyon ki or ishara kiya tha aapne khud me lakshit kar liya to mai kya kar sakata hun. par mai vyaktugat nahi hona chahta tha to is aaghat ke liye chhama.
vaise aapko to hamaari bhasha bhi gaali lagati hai.:nishpran deh me uttejana aur lalitya: :shav shaadhana: :sannipati bayaan::parjeevi:... jaise subhasit rachane ke baad aapne kya ummeed ki thi? aapke vachan nirmal aur hamara javab gaali ise kahte hain vishuddh boudhhik dogalapan!
aapne hatasha ki khub kahi. darasal hatasha to ek karyakram ki maamuli suchana par bhari bharakam tippani me jhalakti hai aur yeh to kisee pragtisheel yaa janvaadi vichardhara ke sangthan ka karyakram hai hi nahi priyamvad aur unke saathi jo sangaman ke samiti me hain ve to kisee sangathan me hain hi nahi.par yeh jaanane ke liye sahitya ke samkaalen paridrishya ko jaanana aur padhana padata hai. vaise aapki hatasha aur kheez samaz me aati hai.aapko lagata hai ki itani haron ke baad, itane vipareet paristhitiyon me kaise ade rahte hain ye log, hansate hain,gaate hain aur lage rahte hain aakhir bikate kyon nahi? ab kya karenge hamari vichardhara ne hame yehi sikhaya hai.
bouddhik dikhane ka pralobhan kya khoob kaha hai bhai.vais ek mamuli suchana par jis shabdkosheeya tippani se aapne shuruaat ki vah murkh dikhane ki koshish to katai nahi thee.bhai yeh pralobhan sahaj maanveeya kamzori hai aur ise kisee vichardhara se jodana purvagrah ki charam abhivyakti!vais yeh saatwik pralobhan unke saamne tikata bhi nahi jinkaa jikra maine pichhali baar kiya tha.
chaliye ham banjh(is dhue streevirodhi shabd kaa prayog mai katai nahi karata par aapne karwa liya aap khush ho sakte hain)bouddhik kam se kam gamle ke pushpon se duniya ko thoda khubsoorat to bana rahe hain.yeh rashtravaadi zameen par katlogaarat ki moulik fasal se bahut behatar hai.
Pragatisheelata bhi manav ki ek sahaj agragaami pravirtee hai sangathanon ki thekedaari nahi.aur yeh hoti hai aap kitana bhi sar peeten.
mai kya hun isaki chinta muze nahi aap bhi na karen mera likha sab documented hai ya hoga aur janata tay kar legi.muze bhavishya ke itihaasbodh par bharosa hai aap vartmaan ke vartmaanbodh se kaam chalayen.
han bhai ham aag khate hain aur aag ugalte hain khoon peekar ras ugalne ki kala aapko mubarak!
SANGAMAN KI DETAILS KE LIYE DEKHEN
www.sangaman.com
ASHOK KUMAR-NAMASKAR. aap ki kavita parhi achhi hai. likhte raho, zindagi ek safar hai chalte rahna hai. jitna safar karoge utni qalam men nikhar aayegi.
achhe doston, lekhkon ka saath hi aapko ek uncha mqaam haasil krayega.
mangal kaamnayen-ARIF JAMAL.
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