अपनीबात... के बारे में अपने सुझाव इस ई - मेल आई डी पर भेजें singh.ashendra@gmail.com या 94257 82254 पर SMS करें

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2008

दिल्ली में ना होने का मतलब !


दिल्ली क्या छूटी अपनों ने तो जैसे बिसरा ही दिया। मोहब्बती दोस्त हों या साहित्यकार मित्र, पत्रकार परिवार के सदस्य हों या एनजीओ बिरादरी के सखा, अब हर कोई क्रमशः भूलता जा रहा हैं । कभी -कभार कुछ लोगों का फ़ोन गलती से आ भी जाता है तो बस वही एक सवाल कहाँ हो यार ? और जब मै बताता हूँ ग्वालियर में हूँ तो वही एक जवाब चलो यार तुम से फुर्सत में बात करता हूँ। अब यह सोचता हूँ कि जब तक दिल्ली में रहा लोगों के दिलों के इतना नज़दीक क्यों रहा। कुछ बातें समझ में आतीं हैं जैसे मोहब्बती दोस्तों का प्रिय तो इस लिये रहा जब भी उन के पास एक - दो दिन की फुर्सत होती थी और दिल्ली घूमने का मन होता था मुझे याद कर लिया करते थे रहने, खाने और घुमाने की जिम्मेदारी मेरी होती थी जिसे मै बखूब ही निभा देता था। साहित्यकार मित्रों का प्रिय इस लिये रहा क्यों कि उन की पत्र - पत्रिकाओं के लिये जो भी लिखकर भेजता था उसके अंत में लिखा दिल्ली का पता मेरी रचना के साथ - साथ उनके प्रकाशन का सम्मान भी बन जाता था। मुझ से ज्यादा मेरे साहित्यकार मित्रों को मेरे दिल्ली में होने की खुशी थी. मेरा एड्रेस उनकी पत्रिका या अख़बार का रुतबा जो बढ़ता था. पत्रकार परिवार के सदस्य आये दिन इस लिये मुझे फ़ोन और मेल कर लेते थे क्यों कि उनकी एक ही फ़रमाइश रहती थी यार दिल्ली के किसी अखबार या चैनल में जुगाड़ लगाओ ना. रही बात एनजीओ बिरादरी के सखाओं की तो मुझे याद करने के उनके पास बहुत से कारण थे. जंतर - मंतर पर किसी मुद्दे को लेकर धरना देना हो या किसी अन्य एनजीओ छाप आयोजन में भीड़ जुटानी हो मैं भीड़ की एक इकाई के रूप में शुमार रहता था. किसी - किसी आयोजन में तो मेरे साथ - साथ मेरे संगठन का नाम भी जोड़ लिया जाता था. (दिल्ली के एक संगठन का अपना वजन होने के भ्रम से ) . दिल्ली के अलग - अलग रूट्स के बसों के नंबरों से लेकर कुछ ख़ास सस्थाओं के कार्यालयों के पतों की जानकारी लेने में मेरा उपयोग कर लिया जाता था. अब ऐसे में मेरा प्रिय होना लाजमी था. ग्वालियर में आने के बाद मित्रों और शुभ चिंतकों को एसएमएस और ई - मेल कर कई बार अपना एड्रेस बता चूका हूँ, लेकिन डाक अब तक दिल्ली के पते पर ही जा रही है. क्या यह दिल्ली में ना होने का मतलब है...?

बुधवार, 17 दिसंबर 2008

सुना है...

ग्वालियर दैनिक भास्कर से राज एक्सप्रेस में कूच कर गए कुछ लोगों से त्रस्त हो कर भास्कर ने कुछ और लोगों की छटनी करना शुरू कर दिया है. इस में कई महारथियों के चपेट में आने की संभावना है. वहीँ दूसरी और पत्रिका के ग्वालियर संस्करण के खतरे को भापते हुए भास्कर ग्वालियर ने गिफ्ट और कूपनबाज़ी के साथ -साथ मेन पावर को स्ट्रोंग करना भी शुरू कर दिया है. सब एडिटर इन दिनों पेज लगाने की ट्रेनिंग ले रहे हैं. उधर ग्वालियर शहर से चुनावी मेढ़क की तरह बाहर निकला एक दैनिक चुनाव ख़तम होते ही डूब रहा है. हम अपने मन से कुछ नहीं कहते लेकिन सुना है कि शहर का एक घायल अख़बार दम तोड़ने की कगार पर है.

सोमवार, 1 दिसंबर 2008

"किरण-2008" आयोजन

सामाजिक संस्था "परवरिश" के तत्वावधान में मानसिक एवं शारीरिक रूप से निःशक्त बच्चों द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रमों की प्रस्तुति 3 दिसम्बर को की जाएगी. इन बच्चों को समाज की प्रमुख धारा से जोड़ने के उद्देश्य से गत 3 सालों से कार्यरत "परवरिश" संस्था के इस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि प्रशासनिक अधिकारी एवं राजस्व मंडल के सदस्य एस सी वर्धन होंगे. बच्चों द्वारा आयोजित इन कार्यक्रमों को किरण-2008 का नाम दिया गया है।

स्थान- चेंबर ऑफ़ कामर्स

दिनांक - 3 दिसम्बर 2008

समय - दोपहर २ बजे से

"परवरिश"सी एच -127 डी। डी। नगर ग्वालियर- 474 020 (म.प्र.) 9826609117, 9926719601

सोमवार, 24 नवंबर 2008

युवा दख़ल का नया अंक

दोस्तों युवा संवाद,ग्वालियर अपना मासिक बुलेटिन "युवा दखल" का नया अंक '' वैश्विक आर्थिक संकट और भारत'' पर आधारित विशेषांक होगा। हम इसमे अमेरिका से आरम्भ होकर दुनिया भर में फैल चुके आर्थिक संकट के विविध पहलुओं और भारत पर उसके वर्तमान तथा भावी प्रभावों की विस्तृत विवेचना प्रस्तुत करना चाहते हैं। अगर आप इसमे अपना योगदान देना चाहते हैं तो अपने लेख इत्यादि हमारे मेल naidakhal@gmail.com पर भेज सकते हैं। हम आभारी होंगे।लेख हमारे पते पर भी भेजे जा सकते हैं।अंक हम दिसम्बर के पहले हफ्ते में निकलना चाहते हैं।
हमारा पता है- युवा दख़ल,508, भावना रेसीडेंसी, सत्यदेव नगर, गाँधी रोड, ग्वालियर -474002

बुधवार, 1 अक्तूबर 2008

"संगमन-14" ग्वालियर में

- देश भर के कहानीकार करेंगे शिरकत
- कथा पोस्टर तथा चित्र प्रदर्शनी लगेगी
देश
का प्रतिष्टित साहित्यिक आयोजन 'संगमन-14' इस बार संगीत सम्राट तानसेन की नगरी ग्वालियर में आयोजित किया जा रहा है । 10 से 12 अक्तूबर तक आयोजित होने वाले इस तीन दिवसीय कार्यक्रम में देश के लब्ध प्रतिष्टित कहानीकार व विचारक शिरकत कर रहे हैं।
चिंतन के विषय - तीन दिवसीय इस कार्यक्रम को अलग -अलग सत्रों में बांटा गया है। पहला सत्र 10 अक्तूबर को दोपहर 2 बजे से शाम 6 बजे तक आयोजित किया जायेगा। इस सत्र में "स्वतंत्र भारत का यथार्थ और मेरी प्रिय किताब" विषय पर चर्चा होगी। 11 अक्तूबर को सुबह 10 बजे से 2 बजे तक के सत्र में "बदलता यथार्थ और बदलती अभिव्यक्ति " विषय पर विमर्श किया जायेगा। 12 अक्तूबर को सुबह 10 बजे से आयोजित सत्र में कहानीकार अरुण कुमार असफल अपनी कहानी 'पॉँच का सिक्का' व उमाशंकर चौधरी "दद्दा, यानि मदर इंडिया का शुनील दत्त" का पाठ करेंगे। तीन दिवसीय इस कार्यक्रम में कथा पोस्टर प्रदर्शनी व हिंदी तथा उर्दू के लगभग दो सौ लेखकों की चित्र प्रदर्शनी विशेष आकर्षण का केंद्र रहेगी । संगमन के स्थानीय संयोजक व वरिष्ठ कथाकार महेश कटारे की अगुआई में यह कार्यक्रम ग्वालियर के सिटी सेंटर स्थित राज्य स्वस्थ्य एवं संचार संस्थान में आयोजित किया जा रहा है।
प्रतिभागी- कार्यक्रम में देश के लगभग 40 वरिष्ठ साहित्यकार शामिल हो रहे हैं जिसमें डॉ. कमला प्रसाद, गोविन्द मिश्र, विष्णुनागर, गिरिराज किशोर, मंजूर एहतेशाम, पुन्नी सिंह, प्रभु जोशी, प्रकाश दीक्षित, अमरीक सिंह दीप तथा पंकज बिष्ट के नाम शामिल हैं। स्थानीय स्तर पर कथाकार ए. असफल, राजेंद्र लहरिया तथा जितेंद्र बिसारिया सहित कई अन्य साहित्यकार शामिल होंगे।
संपर्क- आयोजन के सन्दर्भ में और जानकारी "संगमन" के संयोजक व वरिष्ठ साहित्यकार प्रियंवद से मोबाईल न. 09839215236 अथवा 0512-2305561 पर प्राप्त की जा सकती है। ग्वालियर में महेश कटारे 09425364213 पवन करण 09425109430 अथवा अशोक चौहान से 09893886914 पर संपर्क किया जा सकता है।

बुधवार, 17 सितंबर 2008

नई दख़ल अब 'युवा दख़ल' होगी

- अशोक पाण्डेय
दोस्तों ,कुछ तकनीकी कारणों से इस अंक से युवा संवाद, ग्वालियर की मासिक पत्रिका 'नई दख़ल' का नाम युवा दख़ल किया जा रहा है।
इस बार हमने इसे युवा विशेषांक के रूप में निकलने का फैसला किया है। इस अंक में मीडिया पर पवन मेराज, शिक्षा,आरक्षण और बाज़ार पर अजय गुलाटी, नैनो और अनाज पर अशोक चौहान ने लिखा है। साहित्य के अंतर्गत जेफरी आर्चर की कहानी, वेणु गोपाल तथा कुमार विकल की कवितायें तथा दलित जीवनियों पर जितेंद्र बिसारिया का आलेख होगा। फिरोज़ का कालम ये अलग मिजाज़ का शहर है तो होगा ही। चार अतिरिक्त पन्नो पर भगत सिंह से जुड़ी सामग्री होगी।
अगर आप प्रिंट में पढ़ने के शौकीन हैं तो 'युवा दख़ल' की वार्षिक सदस्यता है १० रुपये और सम्पादकीय पता - ५०८, भावना रेसीडेंसी , सत्यदेव नगर , गाँधी रोड, ग्वालियर -४७४००२
युवा दिवस का आयोजन -
युवा संवाद शहीदेआज़म भगत सिंह के जन्म दिवस को युवा दिवस घोषित कराने की मांग को लेकर २८ सितम्बर को ग्वालियर में एक परिचर्चा आयोजित कर रहा है जिसका विषय है " बाज़ार में युवा और भविष्य का स्वप्न" । इस परिचर्चा के प्रमुख वक्ता होंगे प्रो. लाल बहादुर वर्मा,वरिष्ठ पत्रकार पंकज बिष्ट और चतुरानन जी । आयोजन स्थल है ऐ-बिज़ कंप्यूटर सेंटर पड़ाव । और समय दोपहर ढाई बजे से आप भी हमारी इस मुहिम में शामिल हों।

बुधवार, 3 सितंबर 2008

एक चिट्ठी पुराने दोस्तों के नाम

हमारी दोस्ती की परीक्षा है
दोस्तों !
जिस समय गुजरात में भूकंप आया था भोपाल में रह कर भी हम सभी ने उसके झटके महसूस किये थे। ज़वानी के जोश और अपने ज़मीर की आवाज़ सुन कर हम सभी गुजरात में राहत कार्य हेतु रवाना हो गए। टीम भावना के साथ हम ने गुजरात में रहत कार्य में अपनी भूमिका निभाई। गुजरात में राहत कार्य के दौरान हम सभी के अपने अनुभव रहे . वो अनुभव और उससे जुडी स्म्रतियां आज भी हमारी धरोहर हैं. उस समय हम सभी पत्रकारिता वि. वि. के छात्र थे . आज हम सभी की अपनी व्यक्तिगत, पारिवारिक , सामजिक और व्यावसायिक जिंदगी है. हम सभी आज अपनी - अपनी भूमिका में पहले से कहीं अधिक सशक्त हैं . ऑरकुट की चुहुलबाजी और चेटिंग या एसएमएस के ज़रिये ही सही, लेकिन हम सभी आपस में जुड़े हैं .
सच्चे मित्र, शुभचिंतक और प्रेमी की पहचान आपातकाल में ही होती है . हम सभी की मित्रता की परीक्षा लेने इस बार बिहार में कोसी नदी ने अपना कहर बरपाया है . तीस लाख से अधिक लोग दिन में सैकडों बार अपनी ज़िंदगी ख़त्म होने के खौफनाक सपने का झटका खा रहे हैं. गुजरात भूकंप से लेकर बिहार बाढ़ त्रासदी तक सरकारी राहत के रवैये में कोई परिवर्तन नहीं आया है. उसी तरह हमारी सोच,संवेदनाएं और जोश भी अब तक बरक़रार है। हम किसी मीडिया संस्थान में कार्यरत हैं अथवा अन्य संस्थान को सेवाएं दे रहे हैं।
कोसी नदी का रौद्र रूप बिहार के एक बड़े हिस्से से मानवता का अस्तित्व खत्म करने की पुरज़ोर कोशिश में है। इतने सालों बाद हमारी दोस्ती और टीम भावना की परीक्षा एक बार फिर से ली जा रही है। हम जहाँ भी हैं वहां से अपने पूरे जुनून और जोश के साथ अपनी दोस्ती का ध्वज लेकर परिस्थितियों पर फ़तह पाने की एक ईमानदार कोशिश कर सकते हैं। अपने - अपने स्तर के अतिरिक्त हम बिहार कोसी बाढ़ ब्लॉग पर भी जुड़ रहे हैं।
आईये और जिंदादिली के साथ हाथ बढाईये।
धन्यवाद और शुभकामनाओं के साथ आपका अपना साथी - आशेन्द्र

मंगलवार, 2 सितंबर 2008

अपील

इसलिए अभियान

क्योंकि उत्तर-पूर्वी बिहार के पांच जिलों में आई यह तबाही महज साधारण बाढ़ नहीं, बल्कि एक नदी के रास्ता बदल लेने की भीषण आपदा है।इस तबाही के कारण 24 लाख से अधिक लोग बेघर हो गए हैं और उन्हें तकरीबन दो साल इन्ही हालात में रहना होगा।जब तक टूटे बांध बांधकर नदी को पुरानी धारा की ओर न मोड दिया जाए.ऐसे में पूरे देश के हर जिले से जब तक राहत सामग्री न भेजी जाए विस्थपितों की इतनी बडी संख्या को राहत पहुंचाना मुमकिन नहीं.क्योंकि देश में इस आपदा को लेकर अब तक वैसे अभियान नहीं चलाए जा रहे जैसे पिछ्ली त्रासदियों के दौरान चलाए गए थे. सम्भवतः केन्द्र की 1000 करोड़ रुपए की सहायता को पर्याप्त मान लिया गया है.जबकि केन्द्र सरकार का यह पैकेज 24 लाख विस्थापितों के लिए ऊंट के मुंह में जीरा से भी कम है. क्योंकि इन्हीं पैसों से टूटे बांधों की मरम्मत और बचाव अभियान भी चलाया जाना है. ऐसे में इन विस्थापितों के राहत और पुनर्वास के लिए दो हजार रुपए प्रति व्यक्ति से भी कम बचता है.और इसलिए भी कि यह एक ऐसी जिम्मेदारी है जिससे मुंह मोडना कायरता से भी बुरी बात होगी.
मदद करें -
अगर आप इन विस्थापितों की मदद करना चाहते हैं तो अपने शहर और आसपास के इलाकों से राहत सामग्री हमें भेज सकते हैं या खुद आकर प्रभावित इलाकों में बांट सकते हैं।अगर आप खुद बांटना चाहेंगे तो हम आपको स्थानीय स्तर पर मदद कर सकते हैं.

आवश्यक राहत सामग्री -
- टेंट
- कपड़ा - पहने व ओढने बिछाने के लिए
- दवाइयां
- क्लोरीन की गोलियां
- भोजन सामग्री
- अनाज
- नमक
- स्टोव
- टॉर्च व बैटरी
- प्लास्टिक शीट
- लालटेन
- मोमबत्ती व माचिस
हमारा सम्पर्क :
विनय तरुण- 09234702353 , पुष्यमित्र - 09430862739 (भागलपुर)
अजित सिंह- 09893122102, आशेन्द्र सिंह - 09425782254 (भोपाल)
Email- biharbaadh@gmail.com

सोमवार, 1 सितंबर 2008

हम सब विपदा में हैं

बिहार में बाढ़ की त्रासदी, उड़ीसा में साम्प्रदायिकता की आग और इस बीच गणेश चतुर्थी और बुधवार का शुभ संयोग। जब सारी दिशाओं में ज़िन्दगी आपदाओं के सफ़े पर अपना वज़ूद तलाश रही हो तब कहाँ का शुभ संयोग. ज़मीनी तौर पर बिहार हो या उड़ीसा सबका अपना भूगोल हो सकता है लेकिन हमारे (जिस में आप भी शामिल हैं) ज़हन में सभी का एक अखंड मानचित्र है. हम सब विपदा में हैं. किसी की आखें पानी में घर तलाश रही हैं तो कोई आग में अपने परिजनों की जलती हुई तस्वीर देख रहा है.असमान पर उम्मीद तलाशती आखों में खाने के पैकिट चाँद बन गए हैं. हमारे मित्र सचिन का एक मेल आज मिला जस का तस प्रस्तुत कर रहा हूँ.
आज सुबह भागलपुर से विनय तरुण का फोन आया. परेशान और हडबडाती आवाज में उन्होंने बताया कि बाढ की आढ में जारी सरकारी नरसंहार के बीच लोग थकने लगे हैं. मददगार हाथों की ताकत भी धीरे धीरे खत्म हो रही है. उनकी उम्मीद भरी आंखें देश के हर हिस्से की तरफ ताक रही हैं. वे नहीं कह पाए कि हम क्या करें. भोपाल से बैठकर सिर्फ देखा, पढा और सुना जा सकता है कि वहां जिंदगी कितनी पानी है और कितनी जमीन. आज यानी एक सितंबर को शाम छह बजे कुछ साथी त्रिलंगा में मिलेंगे. हम उम्मीद करते हैं कि आप वहां आएंगे और कोई राह सुझाएंगे कि बेचैन करने वाले वक्त में ढांढस के अलावा कोसी के बीच फंसी जिंदगियों को क्या दिया जा सकता है. समय की कमी हो तो फोन कर लें. आप आइये फिर बात करते हैं।
सचिन का मोबाईल नंबर है - +९१९९७७२९६०३९
नई इबारतें

मंगलवार, 19 अगस्त 2008

खेल पत्रकारिता में भविष्य


वर्ष 2010 में होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों को मद्देनज़र रखते हुए खेल पत्रकारिता में सुनहरे भविष्य की संभावनाएं और प्रबल हो गईं हैं. देश के अग्रणी संस्थान लक्ष्मीबाई राष्ट्रीय शारीरिक शिक्षा संस्थान, ग्वालियर ने खेल पत्रकारिता में एक वर्षीय डिप्लोमा पाठ्यक्रम प्रारंभ किया है. संस्थान में खेल पत्रकारिता एवं खेल प्रबंधन विभाग के प्रमुख डॉ वी. के. डबास के अनुसार एक वर्षीय इस पाठ्यक्रम में किसी भी विषय से स्नातक उत्तीर्ण छात्र प्रवेश ले सकते हैं. प्रवेश प्रक्रिया अभी जारी है.पाठ्यक्रम और प्रवेश के सम्बन्ध में और जानकारी एवं फार्म संस्थान की वेबसाईट http://www.lnipe.gov.in/ पर उपलब्ध है. सीधा संपर्क दूरभाष क्रमांक 0751-4000803 पर किया जा सकता है. डॉ. डबास के अनुसार पाठ्यक्रम को प्रभावी और उपयोगी बनाने के लिये संस्थान ने छात्रों को खेल पत्रकारिता संबन्धी व्यावहारिक व तकनीकी ज्ञान के लिये विशेष प्रबंध किये हैं जो कि प्रिंट एवं इलेक्ट्रोनिक मीडिया में अवसरों को लेकर हैं.

शुक्रवार, 15 अगस्त 2008

स्वत्रंत्रता दिवस की शुभकामनाएं

सभी देश वासियों को
स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं

-अपनीबात टीम

रविवार, 10 अगस्त 2008

लक्ष्य से भटका मीडिया

- मंतोष कुमार सिंह

मीडिया से जादू की छड़ी जैसे चमत्कार की अपेक्षा करना, गोबर में घी सुखाने के बराबर है। खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया के माध्यम से अब समाज में क्रातिंकारी बदलाव की अपेक्षा तो नहीं की जा सकती है। क्योकिं मीडिया रूपी तलवार में न तो अब पहले जैसी धार रही और न ही जंग लड़ने की क्षमता। बाजारवाद और प्रतिस्पर्धा के चलते मीडिया अपने लक्ष्य से भटक चुकी है। समाचार चैनलों द्वारा वह सब कुछ परोसा जा रहा है, जिसे अधिक से अधिक विज्ञापन मिले। समाचार के प्रसारण से समाज पर क्या प्रभाव पड़ रहा है, इससे चैनलों को कुछ लेना-देना नहीं है। उन्हें सिर्फ़ अब अपने उत्पाद को बेचने से मतलब है। एक शोध में भी इस बात का खुलासा हुआ है कि मीडिया को अब समाज के सरोकारों से कुछ लेना-देना नहीं है। खासकर स्वास्थ्य से संबंधी समाचारों के प्रति चैनल पूरी तरह से उदासीन हो गए हैं। एक शोध संस्थान द्वारा छ: समाचार चैनलों पर जुलाई, 2007 में किए गए अध्ययन में यह बात सामने आई है। शोध में कई चौकाने वाले तथ्य भी समाने आए हैं। अध्ययन से पता चला है कि स्वास्थ्य संबंधी विषयों पर एक माह में प्राइम टाइम पर कुल प्रसारित समाचारों की संख्या का मात्र ०.9 प्रतिशत भाग था। साथ ही कुल प्रसारण समय में से मात्र 0.7 प्रतिशत ही स्वास्थ्य संबंधी विषयों को दिया गया। यह अध्ययन जुलाई माह में किया गया था। शोध के दायरे में आज तक, डीडी न्यूज, एनडी टीवी, सहारा समय, स्टार न्यूज और जी न्यूज को रखा गया था। शाम 7 बजे से रात 11 बजे तक प्रसारित समाचारों के अध्ययन में यह पाया गया कि कुल 683 समाचारों में स्वास्थ्य संबंधी महज 55 समाचार थे। समाचारों के प्रसारण के लिए लगे कुल समय 27962 मिनट में से सिर्फ 197 मिनट स्वास्थ्य संबंधी समाचारों के लिए प्रयोग किए गए। इन समाचारों में पोषण संबंधी 2 , असंतुलन व बीमारियों संबंधी 30, स्वास्थ्य सुविधाओं संबंधी 5 , स्वास्थ्य नीति संबंधी 12 , स्वास्थ्य केद्रिंत कार्यक्रमों के 4 और स्वास्थ्य क्षेत्र के ही अन्य विषयों के 2 समाचार थे। इन समाचारों के लिए क्रमशः 18,112,18,19,8 और 22 मिनट का समय दिया गया। चौंकाने वाली बात यह रही कि स्वास्थ्य संबंधी खोज व शोध पर एक भी समाचार इस अवधि में प्रसारित नहीं हुआ। इसके विपरीत डब्ल्यूएचओ की ताजा रिपोर्ट में स्वास्थ्य से संबधिंत कई दिल-दहलाने वाले आंकड़े सामने आए हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि संक्रामक रोगों का स्तर खतरे के निशान को पार कर गया है। विश्व में संक्रामक बीमारियां काफी तेजी से फैल रही हैं। डब्ल्यूएचओ ने चेताया है कि अगर एहतियात नहीं वरते गए तो विश्व में न केवल स्वास्थ्य बल्कि अर्थव्यवस्था और सुरक्षा भी प्रभावित होंगे। ऐसे में मीडिया को स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों के प्रति गंभीर होना पड़ेगा और लोगों में इन बीमरियों के प्रति जागरूकता लानी होगी।

टीआरपी का धंधा


- मंतोष कुमार सिंह

वे कर भी क्या सकते हैं ? मजबूरी जो है। मजबूरी में इंसान को कई तरह के पापड़ बेलने पड़ते हैं। मजबूरी में आदमी किस हद तक गिर सकता है इसका अनुमान लगाना कठिन ही नहीं असंभव भी है। हमारे देश के अधिकांश समाचार टीवी चैनल भी इन दिनों टीआरपी संबंधी मजबूरी के दौर से गुजर रहे हैं। टीआरपी के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाने की होड़ मची हुई है। ऐसा व्यावसायिक प्रतियोगिता और विज्ञापन के लिए किया जा रहा है। क्यों कि टीआरपी का सीधा संबंध विज्ञापन से है। टीआरपी से ही विज्ञापन की मात्रा और मूल्य तय होता है। ऐसे में मीडिया की सामाजिक जिम्मेदारियां गौंड़ हो गईं हैं। बाजार में बने रहने और खबरों को बेचने के लिए पत्रकारिता के मिशन और परिभाषा को ताक पर रख दिया गया है। टीआरपी जुटाने के लिए चैनल दर्शकों के सामने ऐसी चीजें परोस रहे हैं, जिसे खबर तो नहीं, मनोरंजन के संसाधन की संज्ञा दी जा सकती है। अब आपको मनोहर कहानियां, सत्यकथा, सच्ची कहानियां जैसी पत्रिकाएं खरीदने की जरूरत नहीं है। क्योकिं आजकल हमारे टीवी चैनलों की शुरुआत और अंत भी ऐसे ही साहित्य से हो रहा है। घर के ङागड़े, पति-पत्नी की नोंक-झोंक , सास-बहू की तकरार अब ब्रेकिंग न्यूज में तब्दील हो गई है। सेक्स, हत्या, बलात्कार, भूत-प्रेत, राशिफल, अंधविश्वास, प्रेम-प्रसंग और अश्लीलता को खबर बनाकर बेचने का धंधा जोरों पर चल रहा है। एफआईआर, वारदात, सनसनी, क्राइम फाइल, क्राइम रिपोर्टर्र और न जाने किन-किन नामों से उद्दीपक और जुगुप्सा जगाने वाले कार्यक्रम व दृश्य प्रसारित कए जा रहे हैं। क्या सूचना तकनीक के इस युग में मीडिया का यही नया रूप है ? इन बदलावों का समाज पर क्या असर होगा ? किस रूप में नई चुनौतियां सामने आएंगी। इसके बारे में कोई संवेदनशील मीडियाकर्मी ही सोच सकता है। मुझे नहीं लगता कि ऐसे मीडियाकर्मी चैनलों के दफ्तरों में हैं। अगर हैं भी तो उन्हें व्यावसायिकता और विज्ञापनों के ढेर में कहीं दुबकने पर मजबूर होना पड़ा है। उनकी छटपटाहट कोने में दबकर नष्ट हो रही है। वर्तमान में न्यूज चैनलों ने समाचार का रास्ता छोड़कर मनोरंजन को चुन लिया है। उन्होंने उपरी वेश-भूषा इस तरह बदली है, जिसकी न तो कोई दिशा है और न दशा। ऐसे में अपराध और सेक्स को बड़ी आसानी से परोसा जा रहा है। मार्केटिंग वालों का अपना तर्क है। ऐसे कार्यक्रमों को घटिया माल की तरह आसानी से बेचाने के साथ अश्लील अंडरवियर (जिस पर पाबंदी लग गई है) जैसे महंगे विज्ञापन भी लिए जा सकते हैं। ऐसे कार्यक्रमों को परोसने में अक्ल का इस्तेमाल न के बराबर करना पड़ता है। जो सबसे सस्ता और आसान विकल्प है। ऐसे एंकर आसानी से सस्ते दामों में मिल जाते हैं।

शनिवार, 2 अगस्त 2008

नई सोच का दख़ल

युवा शक्ति और उसकी रचनात्मक सोच हमेशा से क्रांति की द्योतक रही है। यही क्रांति इतिहास के सफ़ों को समृद्ध करती आई है। बात सामाजिक परिवर्तन की हो अथवा वैचारिक क्रांति की युवाओं की शक्ति और सोच की भूमिका को नकारा नही जा सकता। ग्वालियर (जो कि मेरा गृह नगर है) में कुछ दिनों पूर्व युवा पत्रकार फिरोज़ खान के मार्फ़त मेरी मुलाक़ात अशोक भाई से हुई। अशोक भाई युवा होने के साथ-साथ सामाजिक और आर्थिक विषयों के एक अच्छे लेखक भी हैं। उनके बारे में यह कहना भी लाज़िमी होगा कि आप विचारों की शक्ति से बदलाव बनाम सुधार पर भी यकीन रखते हैं। अशोक भाई के आलेख पत्रिकाओं और समाचार पत्रों में अशोक कुमार पाण्डेय के नाम से पढ़े जा सकते है। अशोक और राजेंद्र भाई जैसे कुछ और युवा साथियों ने 'युवा संवाद' के नाम से एक अनौपचारिक संगठन बनाया है। बकौल अशोक भाई यह संगठन प्रदेश के विभिन्न शहरों में युवाओं को जोड़ कर आगे बढता जा रहा है। युवा संवाद की ग्वालियर शाखा ने हाल ही में ' नई दख़ल' नामक एक न्यूज़ लेटर का प्रकाशन शुरू किया है। शुरूआती दौर की कई स्वाभाविक कमियों से सम्पन्न इस न्यूज़ लेटर में युवाओं ने अपने कुछ कर गुज़रने के ज़ज्बे और विचारों का अच्छा निवेश किया है। फ़िलहाल दो माह में एक बार प्रकाशित होने वाले 'नई दख़ल' को लेकर 'युवा संवाद' के पास कई योजनाएं हैं। मुझे 'नई दख़ल' का दूसरा अंक मिला है। इस अंक में शहीद भगत सिंह के आलेख के साथ-साथ सुभाष गाताडे का विशेष आलेख 'अथ श्री मेरिट कथा' का प्रकाशन किया गया है। आठ प्रष्ठीय इस न्यूज़ लेटर में युवा कथाकार जितेन्द्र बिसारिया की कहानी 'वे' के अतिरिक्त केरल के स्कूलों में चल रही पाठय पुस्तक से 'जाति विहीन जीवन' लघु कथा को शामिल किया गया है। दो कविताओं के साथ-साथ ग्रामीण जीवन व किसानों की बदहाली की चिंता करता हुआ अशोक चौहान के आलेख का प्रकाशन किया गया है। 'नई दख़ल ' में न्यूज लेटर का शीर्षक ही मन किरकिरा कर देता है। इस में लिंगगत दोष है। इसके अतिरिक्त उर्दू अल्फ़ाज़ों में नुक्तों का अभाव जैसी प्रारंभिक गलतियां इस प्रयास को वांक्षित प्रशंसा और सराहना से महरूम रखती हैं। आज हम जिस दौर से गुज़र रहे हैं यदि यहां कोई सामंतवादी या पूंजीवादी व्यवस्था का विरोध करता है तो तथाकथित रूप से उसे कम्युनिष्टवादी करार दे देते है। 'नई दख़ल' में प्रकाशित सामग्री को भी इसी नज़रिए से देखा जा सकता है। दो रूपये मूल्य के 'नई दख़ल' में प्रिंट लाइन का न होना एक बडी लापरवाही है। चूंकि इस वैचारिक न्यूज़ लेटर का प्रकाशन समाज की सोच को बदलने की नेक मंशा के साथ किया गया है अतः नई दख़ल के आगामी अंको में हमें सुधार देखने को ज़रूर मिलेगा बशर्ते हम सभी अपनी प्रतिक्रियाओं से निरंतर अवगत कराएं। 'नई दख़ल' के सम्बन्ध में कोई भी ज़ानकारी अशोक भाई से उनके मोबाईल नम्बर 09425787930 पर ली जा सकती है । नई दख़ल का ई-मेल है- naidakhal@gmail.com अथवा kumar_ashok@sify.com

सोमवार, 14 जुलाई 2008

मीडिया मुगल मर्डोक

- मंतोष कुमार सिंह
सिकंदर द्वारा एक शहर जीतने के बाद एक व्यक्ति ने उनसे पूछा कि यदि अवसर मिला तो क्या आप अगला शहर भी जीतेंगे? सिकंदर बोला- अवसर? अवसर क्या होता है? मैं स्वयं अवसर का निर्माण करता हूं। सिकंदर के ही नक्शे कदम पर चलते हुए रिपोर्टर मर्डोक भी विश्व मीडिया के शहंशाह बन गए। मर्डोक ने कभी भी अवसर का इंतजार नहीं किया, बल्कि खुद अवसर का निर्माण किया। उनका दृढ़ निश्चय ही उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करता रहा। इसी का नतीजा रहा कि वे अमरीका के प्रमुख मीडिया समूह डाऊ जोन्स में 37 प्रतिशत हिस्सेदारी का सौदा करने में सफल रहे। यह सौदा पांच अरब डालर में हुआ। डाऊ जोन्स समूह अमरीका के प्रमुख आर्थिक समाचार पत्र वॉल स्ट्रीट जर्नल का प्रकाशन करता है। यूएसए टुडे के बाद अमरीका के चोटी के अखबारों में वॉल स्ट्रीट जर्नल का स्थान दूसरा है। 125 साल पुराना यह समाचार पत्र डाऊ जोन्स समूह का फ्लैगशिप ब्रांड है। इस समूह का 64 प्रतिशत शेयर बैनक्रॉफ्ट परिवार के पास है। मर्डोक ने डाऊ जोन्स में हिस्सेदारी प्राप्त करने के लिए खास रणनीति बनाई। इसके लिए उन्होंने समूह के चीफ एग्जीक्यूटिव रिचर्ड जन्नीनो को अपने विश्वास में लिया। एक दिन नाश्ते के वक्त मर्डोक ने अपनी मंशा जाहिर की। आम सहमति बनने के बाद उन्होंने विधिवत प्रस्ताव भेजा और सौदा तय करने में सफल रहे। इस डील के साथ ही रूपर्टर् मर्डोक सुर्खियों में हैं। मर्डोक ने धीरे-धीरे अपनी शक्ति में इजाफा करते हुए मीडिया मुगल का ताज पाया है। मर्डोक को सफलता गिफ्ट में नहीं मिली, बल्कि इसके लिए उन्हें कई तरह के पापड़ बेलने पड़े। मर्डोक के पास शुरू-शुरू में महज एक अखबार न्यूयॉर्क पोस्ट था। वे दुनिया के शक्ति केंद्र में अपने आपको स्थापित करना चाहते थे। कारोबार विस्तार के साथ-साथ मर्डोक सत्ता के गलियारों में भी अपनी पैठ बढ़ाना चाहते थे। इसी उद्देश्य के मद्देनजर मर्डोक ने डाऊ जोन्स के साथ सौदेबाजी की और सफल रहे। उन्होंने कभी भी पत्रकारिता मूल्यों पर कॉरपोरेट को हावी नहीं होने दिया। मर्डोक मीडिया की स्वतंत्रता, निष्पक्षता और क्वालिटी पर विश्ोष ध्यान देते हैं। उन्होंने बकायदा एक कमेटी का गठन किया है जो पत्रकारों और संपादकों को रखने या निकालने का काम करती है। 76 वर्षीया रूपर्टर् मर्डोक न्यूज कार्पोरेशन मीडिया समूह के सीईओ हैं। इस समूह के पास 175 मीडिया हाउस का अधिकार है। मर्डोक के मीडिया समूह का कारोबार 20 देशों में फैला हुआ है। आस्ट्रेलिया के रहने वाले मर्डोक ने अपने देश से ही अखबार की शुरुआत की तथा धीरे-धीरे उनका कारोबार दुनियाभर में फैल गया। न्यूज कार्पोरेशन अमरीका, एशिया, आस्ट्रेलिया और यूरोप में टाइम्स ऑफ लंदन, द सन, न्यूयॉर्कर् पोस्ट जैसे समाचार पत्र, फिल्म व टीवी स्टूडियो, केबल, किताबें, पत्रिकाएं, पब्लिशिंग हाउस, फॉक्स टीवी नेटवर्क, माई स्पेस नाम से सोशल नेटवर्किंग साइट और कई देशों में टीवी चैनल चलाता है। इस समूह से हर साल 25।3 अरब डालर की कमाई होती है। जबकि इस समूह की हैसियत 70 अरब डालर से भी अधिक की है!
(मंतोष कुमार सिंह पत्रिका भोपाल में कार्यरत हैं )

रविवार, 24 फ़रवरी 2008

भारत और अमेरिकन पत्रकारों की वर्कशॉप

भारत और अमेरिका के पत्रकारों की संयुक्त कार्यशाला का आयोजन 1- अप्रेल को मुम्बई में किया जा रहा है। 6- भारतीय और 6- अमेरिकन पत्रकारों वाली इस कार्यशाला के लिये आवेदन की अन्तिम तिथि 1- मार्च है।
और अधिक जानकारी मीडिया तड़का पर उपलब्ध है।

शनिवार, 23 फ़रवरी 2008

बर्ड फ्लू से बौखलाया देश


-मंतोष कुमार सिंह

बर्ड फ्लू ने एक बार फिर भारत में दस्तक दे दी है। इस बीमारी ने केंद्र के साथ-साथ कई राज्य सरकारों की नाक में दम कर दिया है। पश्चिम बंगाल के अधिकांश जिले बर्ड फ्लू की चपेट में आ गए हैं। साथ ही पड़ोसी राज्य बिहार में भी यह बीमारी पहुंच चुकी है। कई राज्यों में ऐहतियातन सतर्कता बरती जा रही है। यह चौथा मौका है जब देश में इस घातक बीमारी ने अपना पैर फैलाया है। फरवरी 2006 में पहली बार भारत के महाराष्ट्र राज्य में बर्ड फ्लू की पुष्टि हुई थी। उस समय भी लाखों मुर्गे-मुर्गियों और पक्षियों को मारा गया था, फिलहाल पश्चिम बंगाल, बिहार के साथ-साथ कई अन्य राज्यों में बीमारी की रोकथाम के लिए मुर्गियों का काम तमाम किया जा रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस बार के बर्ड फ्लू को घातक किस्म का बताया है। संगठन का कहना है कि अगर कारगर कदम नहीं उठाए गए तो मनुष्य भी बर्ड फ्लू की चपेट में आ सकते हैं। वहीं संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन ने इसे विश्वव्यापी महामारी घोषित कर दिया है। यह बात समझ से परे है कि जब आग लगती है तभी सरकारें कुआं खोदने का काम क्यों करती हैं? पहले से कोई व्यवस्था क्यों नहीं की जाती है ? हम ऐहतियातन कदम उठाने में क्यों देर कर देते हैं ? आदेशों के पालन में शिथिलता क्यों बरतते हैं ? इस बार भी बर्ड फ्लू से निपटने में शिथिलता बरती जा रही है। बीमारी से पीड़ित मुर्गे-मुर्गियों को मारने के अभियान में कोताही बरती जा रही है। केंद्र और पश्चिम बंगाल सरकारें एक दूसरे पर दोषारोपण कर रही हैं। पोल्ट्री उद्योग अरबों का नुकसान उठा चुका है। भारत के साथ-साथ पूरे विश्व में बर्ड फ्लू का खतरा लगातार फैल रहा है। चार साल में इस बीमारी ने 65 देशों को अपनी चपेट में ले लिया है और दो सौ से भी ज्यादा लोगों को लील लिया है। इसके संक्रमण की चपेट में हर महीने एक नया देश आ रहा है। दिसंबर-2007 के बाद बांग्लादेश, भारत, चीन, मिस्त्र, जर्मनी , ब्रिटेन, इंडोनेशिया, ईरान,इजराइल , म्यांमार, पोलैंड, युक्रेन, तुर्की, रूस, वियतनाम और नाइजीरिया में बर्ड फ्लू की पुष्टि हो चुकी है। कुछ देशों में यह रोग मुर्गे-मुर्गियों के साथ टर्की, बतखों और हंसों में भी फैल चुका है। वहीं बांग्लादेश के 64 में से 29 राज्यों में यह बीमारी फैल चुकी है। डब्ल्यूएचओ का मानना है कि दुनिया भर में वर्ष 2007 में बर्ड फ्लू के मामलों और इस बीमारी से मरने वालों की संख्या में कुछ कमी जरुर आई है, लेकिन इसकी चपेट में आने वाले देशों की संख्या लगातार बढ़ रही है। 2007 के दौरान इस रोग के कुल 83 मामले सामने आए और 55 रोगियों की मौत हो गई। इससे पिछले साल 115 मामले सामने आए थे और 79 रोगियों की मौत हुई थी, लेकिन अब ज्यादा चिंता की बात है कि 65 से अधिक देश इस बीमारी की चपेट में आ चुके हैं और हर साल यह संख्या बढ़ती जा रही है। बर्ड फ्लू से इंडोनेशिया में सर्वाधिक 100 व्यक्तियों की मौत हुई है। बर्ड फ्लू 2003 में फैला था तब से 2007 तक इस रोग के कुल 346 मामले सामने आ चुके हैं और 213 रोगियों की मौत हो चुकी है। 2003 में इस रोग से मरने वालों की संख्या केवल चार थी, जो अगले वर्ष 32 और 2005 में 43 हो गई थी। यह रोग अब दक्षिण पूर्व एशिया के अलावा यूरोप के देशों को भी अपने चपेट में ले रहा है। हाल ही में ब्रिटेन में इसके वायरस पाए गए हैं। जिससे यूरोपीय देशों में खलबली मच गई। चिकित्सा विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसे मामलों की कुल अनुमानित संख्या तो बहुत अधिक होगी। डब्ल्यूएचओ द्वारा जो अन्कारे जारी किए गए हैं, वे सरकारी या बड़े अस्पतालों द्वारा दी गई सूचना पर आधारित हैं। बर्ड फ्लू नाम की बीमारी से निपटने के प्रयासों के लिए संयुक्त राष्ट्र के संयोजक डॉक्टर डेविड नेबैरो जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के लिए भी काम करते हैं ने चेतावनी दी है कि दुनिया में इसी तरह की एक नई बीमारी से भविष्य में 15 करोड़ लोगों की मौत हो सकती है। दुनिया भर में ये बीमारी कभी भी फैल सकती है। बर्ड फ्लू के वायरस में म्यूटेशन यानी अचानक बदलाव के कारण से बीमारी मनुष्यों में बहुत तेज़ी से फैलने का खतरा बढ़ गया है। जब पक्षी उड़कर दूर-दूर तक जाते हैं तो वो बीमारी को भी उन जगहों में फैला सकते हैं। ऐसी बीमारी अगर फैलती है तो उसमें कितने लोगों की जान बचाई जा सकती है ये इस पर निर्भर करेगा कि तमाम देशों की सरकारें इस बात को कितनी गंभीरता से लेती हैं। वहीं शोधकर्ताओं का कहना है कि आम फ्लू के मुकाबले बर्ड फ्लू को फेफड़ों में बहुत गहरे तक संक्रमण करना पड़ता है। यही वजह है कि मानव कोशिकाओं में बर्ड फ्लू के संक्रमण के आसार कम होते हैं, लेकिन अगर कोई व्यक्ति संक्रमित हो जाता है तो बर्ड फ्लू का वायरस (एच-5 एन-1) बहुत तेजी से फैलता है और नुकसान पहुंचाता है। बर्ड फ्लू का वायरस आसानी से उत्परिपर्तित हो सकता है, इसके बाद वायरस और भी घातक हो जाता है। एच-5 एन-1 वायरस आसानी से एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में नहीं फैलता, लेकिन इसके म्यूटेशन यानी उत्परिवर्तन का डर जताया जा रहा है। अमरीकी वैज्ञानिकों ने इस बात की पुष्टि की है कि एच-5 एन-1 वायरस दो अलग विषाणुओं में बदल चुका है। जिससे मनुष्यों के लिए खतरा बढ़ गया है। विषाणुओं के कारण बर्ड फ्लू के लिए दवा बनाने के शोध का काम और जटिल हो गया है। 2005 से पहले यही माना जा रहा था कि बर्ड फ्लू एच-5 एन-1 वायरस की एक खास किस्म की उपजाति से होता है, लेकिन नए परीक्षणों से पता चला है कि इंडोनेशिया में एच-5 एन-1 वायरस की नई उपजाति सामने आई है। वैज्ञानिकों को डर है कि एच-5 एन-1 वायरस तेजी से मनुष्य में फैल सकता है जिसके बाद बर्ड फ्लू महामारी का रूप ले सकता है। बर्ड फ्लू रोग के वायरस 15 किस्म के होते हैं, लेकिन एच-5 एन-1 ही इंसानों को अपना निशाना बनाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि जैसे वायरस इस बार दिखाई दे रहे हैं, उस तरह के वायरस 1997 में नहीं देखे गए थे यानी पिछले दस सालों में उनमें बदलाव आया है। एक जगह से दूसरी जगह जाने वाले पक्षी इस वायरस को अपने साथ ले जाते हैं, लेकिन खुद इसका शिकार नहीं होते हैं। मुर्गियों को यह वायरस आसानी से पकड़ लेता है। पहले यही समझा जाता था कि बर्ड फ्लू सिर्फ पक्षियों को होने वाली बीमारी है, लेकिन हॉगकॉंग में पहली बार एक व्यक्ति में 1997 मे बर्ड फ्लू के लक्षण पाए गए। वैज्ञानिकों का मानना है कि वे लोग इस वायरस का शिकार हो सकते हैं जो प्रभावित मुर्गियों या पक्षियों के बहुत नजदीक रहते हैं। मुर्गियों के बीट में बर्ड फ्लू के वायरस होते हैं जो हवा के साथ उड़ने लगते हैं और सांस के रास्ते लोगों के शरीर में घुस जाते हैं। ऐसे में इस बीमारी से निपटने के लिए गंभीर प्रयास करने की ज़रूरत है। सभी देशों को बर्ड फ्लू से निपटने के लिए युद्धस्तर पर जुट जाना चाहिए, नहीं तो यह अर्थव्यवस्था को चौपट कर सकता है।

टीआरपी का धंधा

हमारे सहयोगी लेखक मंतोष कुमार सिंह का विश्लेषण पूर्ण आलेख 'टीआरपी का धंधा' पढिएगा मीडिया तड़का पर। मीडिया से संबंधित खबरें और आलेख आप भी मीडिया तड़का के लिये singh.ashendra@gmail.com पर भेज सकते हैं।

सोमवार, 18 फ़रवरी 2008

लक्ष्य से भटका मीडिया

-मंतोष कुमार सिंह

मीडिया से जादू की छड़ी जैसे चमत्कार की अपेक्षा करना, गोबर में घी सुखाने के बराबर है। खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया के माध्यम से अब समाज में क्रातिंकारी बदलाव की अपेक्षा तो नहीं की जा सकती है। क्योकिं मीडिया रूपी तलवार में न तो अब पहले जैसी धार रही और न ही जंग लड़ने की क्षमता। बाजारवाद और प्रतिस्पर्धा के चलते मीडिया अपने लक्ष्य से भटक चुकी है। समाचार चैनलों द्वारा वह सब कुछ परोसा जा रहा है, जिसे अधिक से अधिक विज्ञापन मिले। समाचार के प्रसारण से समाज पर क्या प्रभाव पड़ रहा है, इससे चैनलों को कुछ लेना-देना नहीं है। उन्हें सिर्फ़ अब अपने उत्पाद को बेचने से मतलब है। एक शोध में भी इस बात का खुलासा हुआ है कि मीडिया को अब समाज के सरोकारों से कुछ लेना-देना नहीं है। खासकर स्वास्थ्य से संबंधी समाचारों के प्रति चैनल पूरी तरह से उदासीन हो गए हैं। एक शोध संस्थान द्वारा छ: समाचार चैनलों पर जुलाई, 2007 में किए गए अध्ययन में यह बात सामने आई है। शोध में कई चौकाने वाले तथ्य भी समाने आए हैं। अध्ययन से पता चला है कि स्वास्थ्य संबंधी विषयों पर एक माह में प्राइम टाइम पर कुल प्रसारित समाचारों की संख्या का मात्र ०.9 प्रतिशत भाग था। साथ ही कुल प्रसारण समय में से मात्र 0.7 प्रतिशत ही स्वास्थ्य संबंधी विषयों को दिया गया। यह अध्ययन जुलाई माह में किया गया था। शोध के दायरे में आज तक, डीडी न्यूज, एनडी टीवी, सहारा समय, स्टार न्यूज और जी न्यूज को रखा गया था। शाम 7 बजे से रात 11 बजे तक प्रसारित समाचारों के अध्ययन में यह पाया गया कि कुल 683 समाचारों में स्वास्थ्य संबंधी महज 55 समाचार थे। समाचारों के प्रसारण के लिए लगे कुल समय 27962 मिनट में से सिर्फ 197 मिनट स्वास्थ्य संबंधी समाचारों के लिए प्रयोग किए गए। इन समाचारों में पोषण संबंधी 2 , असंतुलन व बीमारियों संबंधी 30, स्वास्थ्य सुविधाओं संबंधी 5 , स्वास्थ्य नीति संबंधी 12 , स्वास्थ्य केद्रिंत कार्यक्रमों के 4 और स्वास्थ्य क्षेत्र के ही अन्य विषयों के 2 समाचार थे। इन समाचारों के लिए क्रमशः 18,112,18,19,8 और 22 मिनट का समय दिया गया। चौंकाने वाली बात यह रही कि स्वास्थ्य संबंधी खोज व शोध पर एक भी समाचार इस अवधि में प्रसारित नहीं हुआ। इसके विपरीत डब्ल्यूएचओ की ताजा रिपोर्ट में स्वास्थ्य से संबधिंत कई दिल-दहलाने वाले आंकड़े सामने आए हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि संक्रामक रोगों का स्तर खतरे के निशान को पार कर गया है। विश्व में संक्रामक बीमारियां काफी तेजी से फैल रही हैं। डब्ल्यूएचओ ने चेताया है कि अगर एहतियात नहीं वरते गए तो विश्व में न केवल स्वास्थ्य बल्कि अर्थव्यवस्था और सुरक्षा भी प्रभावित होंगे। ऐसे में मीडिया को स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों के प्रति गंभीर होना पड़ेगा और लोगों में इन बीमरियों के प्रति जागरूकता लानी होगी।

शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2008

मासूम भी नक्सली कहर का शिकार

-मंतोष कुमार सिंह
क्सलवाद से प्रभावित 11 राज्यों में से छत्तीसगढ़ की स्थिति सबसे विस्फोटक है। नक्सलियों की धमक प्रदेश के सभी जिलों में देखी जा रही है। वर्ष 2007 में देश में नक्सलियों ने 580 हत्याएं कीं। जिस में आधे से अधिक हत्याएं छत्तीसगढ़ में की गईं। पिछले कुछ वर्षों से नक्सली कहर का शिकार बच्चे भी होने लगे हैं, जिसका ताजा उदाहरण 10 फरवरी-2008 को पोलियोरोधी अभियान के दौरान देखी गई। नक्सली दहशत के कारण बस्तर संभाग में एक सौ से अधिक गांवों में पल्स-पोलियो अभियान के तहत मासूमों को पोलियोरोधी दवा नहीं पिलाई जा सकी। नक्सल प्रभावित बीजापुर के 62, दंतेवाड़ा के 50 और नारायणपुर जिले के 27 गावों के दुर्गम क्षेत्रों में होने तथा नक्सली वारदातों के भय से इन गांवों में स्वास्थ्य कार्यकर्ता नहीं पहुंच पाए। नारायणपुर जिले के ओरछा विकास खंड के अबुङामाड़ क्षेत्र मे जहां दुर्गम पहाड़ों के बीच बसे 27 गांवों में बच्चों को दवा नहीं पिलाई जा सकी। दरअसल नक्सलियों द्वारा बारूदी सुरंगों और अन्य विस्फोटों के बिछाए जाने की वजह से स्वास्थ्य कार्यकर्ता वहां तक जाने की हिम्मत नहीं जुटा सके। दूसरी ओर नक्सली कहर के चलते सुनहरे भविष्य का ख्याब बुन रहे बच्चों को कहीं अध्यापकों की कमी तो कहीं स्कूलों की समस्याओं से जूझना पड़ रहा है। कई गांवों में अभी तक स्कूल नहीं खोले जा सके हैं। दहशत के चलते अधिकांश स्कूलों में अध्यापक जाने से कतराते हैं। जहाँ टीचर हैं वहां अभिभावक अपने बच्चों को भेजना खतरे से खाली नहीं समझते हैं। कई स्कूलों पर नक्सलियों ने कब्जा जमा लिया है तो कई में पुलिस के जवानों ने डेरा डाल दिया है। ऐसे में देश का भविष्य कहे जाने वाले बच्चों का क्या होगा नक्सलवाद के चलते प्राथमिक और उच्च प्राथमिक शिक्षा क्षेत्र में छत्तीसगढ़ फिसड्डी साबित हो रहा है। 2005-06 के शिक्षा विकास इंडेक्स में देश में छत्तीसगढ़ का 22 वां स्थान था, लेकिन 2006-07 में प्रदेश पांच अंक नीचे खिसकते हुए 27 वें नंबर पर पहुंच गया है। प्राथमिक शिक्षा में प्रदेश 2005-06 के दौरान 0.557 सूचकांक मूल्य के साथ 16 वें स्थान पर था, लेकिन 2006-07 में शिक्षा का स्तर काफी नीचे चला गया। इस दौरान 0.517 सूचकांक मूल्य के साथ छत्तीसगढ़ी पूरे देश में 27 वां स्थान ही पा सका। वहीं उच्च प्राथमिक शिक्षा में प्रदेश को 26 वां स्थान मिला है। इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि केंद्र और राज्य सरकार के अधिकाँश प्रयास बेकार साबित हो रहे हैं। शिक्षा विकास इंडेक्स 2006-07 पर नज़र डालें तो मात्र 58.61 प्रतिशत स्कूल ही पक्के भवनों में चल रहे हैं। 84.97 प्रतिशत स्कूलों में ही पीने का पानी उपलब्ध है, वहीं 26.65 स्कूलों में लड़के और लड़कियों के लिए अलग प्रसाधन की व्यवस्था नहीं है। मात्र 13.33 प्रतिशत स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग प्रसाधन है। 41.52 स्कूलों में ही चारदीवारी है। कंप्यूटर के मामले में छत्तीसगढ़ काफी पीछे है। प्रदेश के मात्र 5.71 प्रतिशत स्कूलों में ही कंप्यूटर है, जबकि 29.67 प्रतिशत स्कूलों में ही रसोईघर की व्यवस्था है। प्रदेश के प्राथमिक स्कूल शिक्षकों की भारी कमी से जूझ रहे हैं। लगभग 17 प्रतिशत सरकारी स्कूलों में अध्यापक नहीं हैं, जबकि 7.74 प्रतिशत प्राथमिक और उच्च प्राथमिक स्कूल एक शिक्षक के सहारे चल रहे हैं। इसमें प्राथमिक स्कूलों का प्रतिशत 10.65 है। ऐसे में 2010 तक 6 से 14 वर्ष के समस्त बच्चों को प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध करना मुश्किल ही नहीं असंभव भी है।
(मंतोष कुमार सिंह दैनिक हरिभूमि (रायपुर) में वरिष्ठ उप संपादक के पद पर कार्यरत हैं और जनसामान्य तथा विकास से जुडे मुद्दों पर गहरी पकड़ के साथ लेखन करते हैं.)

रविवार, 10 फ़रवरी 2008

गंदगी...गंदगी बनाम मौत

-आशेन्द्र सिंह
हा
ही में दुनिया भर के 60 स्वास्थ्य समूहों की एक रिपोर्ट में खुलासा किया गया है कि दुनिया में प्रतिदिन लगभग 5 हज़ार बच्चों की मौत साफ़ - सफ़ाई में लापरवाही के कारण या कह सकते हैं गंदगी के कारण होती है । इस रिपोर्ट के तथ्यों को अख़बारों ने प्रमुखता से स्थान दिया। मीडिया के लिये यह एक ख़बर बन कर रह गई, किन्तु हम सब के लिए एक चिंता का विषय है। प्रतिदिन काल के गाल में समां जाने वाले इन बच्चों में एक बड़ी संख्या भारत के बच्चों की भी है।
इन मौतों के लिये सिर्फ साफ़- सफ़ाई का न होना ही ज़िम्मेदार नहीं है , बल्कि गरीबी, अशिक्षा, भ्रष्टाचार, राजनीति और इच्छाशक्ति की कमी जैसी सामजिक और व्यवस्थागत गंदगी भी जिम्मेदार है। रेलवे प्लेटफार्म हो अथवा पार्क सहित अन्य कोई सार्वजनिक स्थान यहाँ मैले-कुचैले कपड़ों में घूमते बच्चे कूड़ेदान खंगालते नज़र आते हैं। आपने खाया, जो बचा उसे फ़ेंक दिया यही इन बच्चों का भोजन होता है। जिस घर में रोज़ी - रोटी का इंतज़ाम न हो उस घर में इन बच्चों की दवाई कराना महज़ एक शिगूफा हो सकता है। सरकार ने अपनी उपलब्धियों की प्रतिपूर्ति के लिये इन के लिए पीला कार्ड बना दिया। ये पीला कार्ड इन के लिये सिर्फ़ एक दस्तावेज़ बनकर रह गया है। अगर इस कार्ड से इन्हें कभी राशन मिलता भी है तो वह इन के स्वास्थ्य को बद से बद्द्तर बनने वाला होता है। जिस के पास दो जून की रोटी न हो उन के यहाँ शौचालय की अपेक्षा करना किसी चुटकुले से कम नहीं।
ग़रीबी की मार झेल रहे परिवारों के बच्चों को शिक्षित करना, सरकारी और ग़ैर सरकारी संस्थाओं के लिये फंड निकलने का एक ज़रिया तो हो सकता है , लेकिन यथार्थ में यह बेमानी है। बालश्रम को समाप्त करने के लिए कानून बना, आंदोलन हुए पर निष्कर्ष...! आज आला -अफ़सरों के यहाँ काम करने वाले ज्यादातर बच्चे ही हैं। इन अफ़सरों के यहाँ का बचा और बासी खाना ही इन के यहाँ काम करने वाले बच्चों का पेट भरता है। ये परिस्थितियां ही हैं जो इन बच्चों को शारीरिक शोषण जैसे कृत्य के बाद भी मौन रखतीं हैं। स्कूलों में मध्यान्ह भोजन में बच्चों को क्या और किस गुणवत्ता का तथा कितना मिलता है ? यह सिर्फ़ और सिर्फ़ कागज़ी घोडे हैं जो सरकार को रेस जितने में लगे हैं । आंगनबाडी में बच्चों के लिये आनेवाला पोषाहार पशुओं को खिलाया जा रह है। ग्रामीण क्षेत्रों में जाति व्यवस्था का अज़गर अभी भी गरीब और दलितों पर घात लगाए बैठा है।
हमारी सरकार और उसके हुकुमरान पांच सितारा होटलों के वातानुकूलित कमरों में बैठ कर ग़रीब बच्चों की स्तिथि पर चर्चा करते हैं। मिनिरल वाटर पीते हुए सोचते हैं कि बच्चों को स्कूलों में पीने का साफ़ पानी कैसे मुहैया कराया जाए ? बात बच्चों की मौत के अकडों पर ही करें तो कन्याभ्रूण हत्या , स्वास्थ्य सुविधाओं की पहुंच न होने के कारण होने वाली बच्चों की मौत जैसे कई पक्षों पर भी नज़र डाली जाए।
मैंने जिस रिपोर्ट का ज़िक्र शुरुआत में किया है उस में इस बात का खुलासा भी किया गया है कि 40 फ़ीसदी लोगों के पास शौचालय की सुविधा नहीं है। शौचालय की सुविधा न होने से अक्सर बच्चे खुले मैं सौंच जाते हैं। खुले में सौच जाना डायरिया को बढ़ावा तो देता ही है साथ ही पोलियो जैसी बीमारी का मुख्य कारण भी बनता है। इस तरह के कई अन्य कारण हैं जो बच्चों को शारीरिक और मानसिक रूप से विकलांग बनाते हैं।
मै सिर्फ व्यवस्था का नकारात्मक पहलू ही नहीं देख रहा , मै बच्चों के उत्थान के लिये किए जा रहे प्रयासों से भी सहमत हूँ और उनके दूरगामी सकारात्मक परिणामों को लेकर आशान्वित हूँ , लेकिन सच तो सचही है न...!

शनिवार, 2 फ़रवरी 2008

अपने दिल की कहिए...


संत की दस्तक ने एक बार फिर से तन, मन और उपवन में आग लगा दी है। वसुन्धरा के श्रृंगार ने मन में अलसाए प्रेम को फिर से चैतन्य कर दिया है। मै भी छलांग लगाने को तैयार हूँ।
'खुसरो दरिया प्रेम का, उल्टी वा की धार,
जो उतरा सो डूब गया जो डूबा सो पार,
मेरे इस माद्दे को और बल मिल जाता है जब फ़िराक साहब की बात मान लेता हूँ -

'कोई समझे तो एक बात कहूं
इश्क तौफ़ीक है गुनाह नहीं,
विज्ञान, साहित्य और शास्त्रों के उदाहरणों और तर्कों के बावज़ूद भी ये गुनाह कर डाला । विज्ञान ने कहा ये तो हारमोन...वगैरह के कारण होता ही है । साहित्य ने उम्र , रूप और जात -पात, धर्म के सारे बंधन ख़त्म कर दिए। शास्त्रों ने कहा प्रेम ही सत्य है इस लिए ईश्वर से प्रेम करो... ! बावज़ूद इन सब के मुझ में ये तौफ़ीक थी कि मैंने इश्क किया। अंत में दुनिया - दारी ने एक पाठ पढ़ाया
' ये सम ही सो कीजिए
ब्याह बैर और प्रीत,
इस पाठ में फ़ैल हो गया। और बशीर बद्र साहब की बात मान बैठा -
ये मोहब्बतों की कहानियां भी बड़ी अजीबो- ग़रीब हैं
तुझे मेरा प्यार नहीं मिला, मुझे उसका प्यार नहीं मिला
हालांकि बकौल निदा साहब ये टीस तो है -
'दुःख तो मुझ को भी हुआ, मिला न तेरा साथ
शायद तुझ में भी न हो, तेरी जैसी बात'
अगर आप के अन्दर भी है कोई ऐसा ही दर्द, अहसास या आग, किसी खूबसूरत लम्हे की याद... अनुभूति। तो मेरे इस यज्ञ में आहुति देने के लिये आप भी प्रेम सहित आमंत्रित हैं । अगर आमंत्रण से परहेज हो तो अनियंत्रित हो कर भी इस सागर में गोता लगा सकते हैं।
अपनीबात... पर होगी इस माह प्रेम की बात। अपने दिल की कहिए कैसे भी...

गुरुवार, 31 जनवरी 2008

CAREER IN EVERYBODY LIFE


Career, it’s a common word to hear but too essential to survive our life. Career is that way which encourage us to accomplice our ambition. People use different kind of career to make their life stable and everybody wants to stick in one static land of career. It’s a very valuable for a person’s life.
Life is inconsiderable beyond of careers; we struggle from our life to make its luxurious. All Youngsters choose different sorts of professional field to lead themselves in various way of virtues. As it’s very important similarly very tuff to reach on that’s ultimate position. We always keep trying and run from pillar to post only to achieve our goal in this path. It’s a professional and competition market and we have to compete and fight one another to create own space.
Career is a very vital in everyone’s life because it is the prior ladder of utmost glory and gives expectation for living life. Without it life is white elephant foremost we must concentrate in one particular subject and know the conscience of careers which should be suitable and deserve for us where we can proceed our life with prosperity and willingly.
(हिंदी ब्लोग पर अंग्रेजी की पोस्टिंग देख कर शायद आप भी हैरान होंगे , लेकिन हमने कहा ना कि ये आपका अपना मंच है जहाँ आप अंग्रेजी क्या हिंगलिश में भी अपनी बात कह सकते हैं . पूजा कोलकाता में रहने वाली पत्रकारिता स्नातक की छात्रा हैं और उन्होने अपनी पोस्टिंग हमें भेजी है आप भी अपनी टिपण्णी दे कर इनका उत्साहवर्धन करें यही अनुरोध है. )

गुरुवार, 17 जनवरी 2008

असमानता का दंश झेलती महिलाएं

-आशेन्द्र सिंह
हमारे गाँव में एक लड़की थी सोमातिया। जब भी उसे इस नाम से पुकारा जाता मेरे मन में एक प्रश्न चिन्ह लग जाता कि भला ये भी कोई नाम है ? बहुत सालों बाद पता चला कि उसका असली नाम सोमता है , लेकिन ( तथाकथित रूप से ) निम्न जाति का होने के कारण सभी लोग ( सोमता के घर वाले भी ) उसे सोमातिया कहकर ही बुलाते हैं .
कहने के लिये तो यह कहा जाता है कि बच्चों की पहली पाठशाला उनका घर होती है। मै भी यही मानता हूँ और लिंग आधारित असमानता का पाठ यहीं से शुरू हो जाता है. इसमें सर्वाधिक मार लड़कियों को ही झेलनी पड़ती है.ये मार भ्रूण से लेकर जन्म-जिन्दगी और अन्तिम साँस तक तो चलती ही है, मरने के बाद भी परिलक्षित होती है.
पिछले लगभग दो दशक से लड़कियों की संख्या ( लड़कों के मुकाबले ) में आरही गिरावट ने कन्या भ्रूण हत्या जैसे कृत्य के खिलाफ कानून बनाने के लिए विवश किया . इस के लिये जन - जागरूकता अभियान भी चल रहे हैं . लड़के के जन्म पर कांसे ( एक धातु ) की थाली बजे या मिठाई बटे , लेकिन लड़की का जन्म मातमी माहौल पैदा कर देता है .घर में लड़के के मुकाबले लड़की को न तो उचित खानपान व परवरिश मिलती है और न ही स्वास्थ्य व शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाएँ. समाज की इसी भेदभाव पूर्ण मानसिकता नें कन्याशाला जैसी संस्थाओं को जन्म दिया है . गरीबी महिलाओं की सबसे बड़ी दुश्मन है. गरीबी का दंश महिलाओं को जन्म से लेकर मौत तक शारीरिक और मानसिक रूप से प्रताड़ित करता है. गरीबी लड़कियों को अशिक्षा व भेदभाव का शिकार बनाने में मुख्य भूमिका अदा करती है . लड़कियों के साथ होने वाले भेदभाव के चलते उनकी शादी बहुत कम उम्र में कर दी जाती है और गरीबी तथा जातिआधारित भेदभाव ' गरीब की लुगाई - सारे गाँव की भौजाई ' का कारण बनता है . ये सभी कारण लड़कियों को घरेलू और सामजिक हिंसा का शिकार तो बनाते ही हैं साथ ही शारीरिक शोषण व उत्पीड़न की मार भी इन्हें झेलनी पड़ती है.संयुक्त राष्ट्र बाल कोष ( यूनिसेफ ) की 2007 की सालाना रिपोर्ट में विश्व स्वास्थ्य संगठन के अध्ययन के निष्कर्षों का हवाला देते हुए बताया है कि ' महिलाएं और लड़कियाँ अक्सर घर के भीतर और बाहर शारीरिक और यौन हिंसा या जोर - जबर्दस्ती का शिकार होतीं हैं. 15 से 71 प्रतिशत महिलाएं अपने करीबी साथी से शारीरिक या यौन हिंसा की मार झेलती हैं . महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा में घरेलू हिंसा सबसे अधिक प्रचलित है ' रिपोर्ट कहती है ' दुनिया में 21 प्रतिशत बच्चे यौन अत्याचार की मार झेलते हैं। जिसमें लड़कियां ज्यादा रहतीं हैं ' लोकतांत्रिक व्यवस्था में महिलाओं को रिजर्वेशन के तहत स्थान तो मिलने लगा है , लेकिन उन्हें महज़ 'रबर स्टाम्प ' के रूप में इस्तेमाल किया जाता है . सरपंच से लेकर जिला स्तर तक के निर्वाचित पदों में यह स्तिथि सर्वाधिक ख़राब है. महिलाओं को निर्णय लेने का अधिकार न घर में रहता है न बाहर . कार्यस्थलों पर महिला यौन उत्पीड़न आज दुनिया भर के लिए एक जटिल व चिंतनीय समस्या बन गई है. ग्रामीण व शहरी दोनों ही क्षेत्रों में महिलाओं को मिलने वाली मजदूरी में भी असमानता देखने को मिलती है. जिस काम के लिये पुरुषों को 70 रूपए मिलते हैं उसी काम की मजदूरी महिलाओं को 50 या 60 रूपए दी जाती है . इस के अतिरिक्त कष्टप्रद व मेहनत वाला काम महिलाओं के हिस्से में ही रहता है . उदाहरण के लिये पानी से भरे खेतों में झुक कर धान की पौध रोपने का काम ज्यादातर महिलायें ही करतीं हैं . मैनें हिन्दू धर्म के कई चालीसा व कई शास्त्र देखे हैं सभी में पुत्र प्राप्ति की कामना व आराधना का उल्लेख मिलता है . इतनां ही नहीं राजस्थान में मैनें देखा है कि पुरुषों का म्रत्युभोज 13 वें दिन होता है जबकि महिला का 12 वें दिन. अर्थात जन्म से म्रत्यु के बाद तक वही भेदभाव... घर में चौका - चूल्हे से लेकर खेती - किसानी व अन्य कार्यों में महिला एक कुशल गृहणी के साथ - साथ प्रबंधक की भूमिका अदा करती है. आइये हम सब लिंग आधारित मानसिकता को समाप्त कर महिलाओं को समान अधिकार व समानता का दर्जा दें !

शनिवार, 12 जनवरी 2008

मै कैसे अमरित बरसाऊँ ?

बाबा नागार्जुन एक ऐसे जनकवि थे जो आम आदमीं कि पीड़ा को खुद महसूस तो करते ही थे साथ ही उसे भोगते भी थे यही कारण है कि उनकी कविताओं में आम आदमी की पीड़ा सजीव दिखती है... प्रस्तुत है बाबा की एक दुर्लभ कविता मै कैसे अमरित बरसाऊँ ?
बजरंगी हूँ नहीं कि निज उर चीर तुम्हें दरसाऊँ !
रस-वस का लवलेश नहीं है, नाहक ही क्यों तरसाऊँ ?
सूख गया है हिया किसी को किस प्रकार सरसाऊँ ?
तुम्हीं बताओ मीत कि मै कैसे अमरित बरसाऊँ ?
नभ के तारे तोड़ किस तरह मैं महराब बनाऊँ ?
कैसे हाकिम और हकूमत की मै खैर मनाऊँ ?
अलंकार के चमत्कार मै किस प्रकार दिखलाऊँ ?
तुम्हीं बताओ मीत कि मै कैसे अमरित बरसाऊँ ?
गज की जैसी चाल , हरिन के नैन कहाँ से लाऊँ ?
बौर चूसती कोयल की मै बैन कहाँ से लाऊँ ?
झड़े जा रहे बाल , किस तरह जुल्फें मै दिखलाऊँ ?
तुम्हीं बताओ मीत कि मै कैसे अमरित बरसाऊँ ?
कहो कि कैसे झूठ बोलना सीखूँ और सिखलाऊँ ?
कहो कि अच्छा - ही - अच्छा सब कुछ कैसे दिखलाऊँ ?
कहो कि कैसे सरकंडे से स्वर्ण - किरण लिख लाऊँ ?
तुम्हीं बताओ मीत कि मैं कैसे अमरित बरसाऊँ ?
कहो शंख के बदले कैसे घोंघा फूंक बजाऊँ ?
महंगा कपड़ा, कैसे मैं प्रियदर्शन साज सजाऊँ ?
बड़े - बड़े निर्लज्ज बन गए, मै क्यों आज लजाऊँ ?
तुम्हीं बताओ मीत कि मै कैसे अमरित बरसाऊँ ?
लखनऊ - दिल्ली जा - जा मै भी कहो कोच गरमाऊँ ?
गोल - मोल बातों से मै भी पब्लिक को भरमाऊँ ?
भूलूं क्या पिछली परतिज्ञा , उलटी गंग बहाऊँ ?
तुम्हीं बताओ मीत कि मैं कैसे अमरित बरसाऊँ ?
चाँदी का हल , फार सोने का कैसे मैं जुतवाऊँ ?
इन होठों मे लोगों से कैसे रबड़ी पुतवाऊँ ?
घाघों से ही मै भी क्या अपनी कीमत कुतवाऊँ ?
तुम्हीं बताओ मीत कि मै कैसे अमरित बरसाऊँ ?
फूंक मारकर कागज़ पर मैं कैसे पेड़ उगाऊँ ?
पवन - पंख पर चढ़कर कैसे दरस - परस दे जाऊँ ?
किस प्रकार दिन - रैन राम धुन की ही बीन बजाऊँ ?
तुम्हीं बताओ मीत कि मैं कैसे अमरित बरसाऊँ ?
दर्द बड़ा गहरा किस - किससे दिल का हाल बताऊँ ?
एक की न, दस की न , बीस की , सब की खैर मनाऊँ ?
देस - दसा कह - सुनकर ही दुःख बाँटू और बटाऊँ ?
तुम्हीं बताओ मीत कि मैं कैसे अमरित बरसाऊँ ?
बकने दो , बकते हैं जो , उन को क्या मैं समझाऊँ ?
नहीं असंभव जो मैं उनकी समझ में कुछ न आऊँ ?
सिर के बल चलनेवालों को मैं क्या चाल सुझाऊँ ?
तुम्हीं बताओ मीत कि मै कैसे अमरित बरसाऊँ ?
जुल्मों के जो मैल निकाले , उनको शीश झुकाऊँ ?
जो खोजी गहरे भावों के , बलि - बलि उन पे जाऊँ !
मै बुद्धू , किस भांति किसी से बाजी बदूँ - बदाऊँ ?
तुम्हीं बताओ मीत कि मैं कैसे अमरित बरसाऊँ ?
पंडित की मैं पूंछ , आज - कल कबित - कुठार कहाऊँ !
जालिम जोकों की जमात पर कस - कस लात जमाऊँ !
चिंतक चतुर चाचा लोगों को जा - जा निकट चिढाऊँ !
तुम्हीं बताओ मीत कि मैं कैसे अमरित बरसाऊँ ?

बुधवार, 9 जनवरी 2008

बालपत्रकार बनना हुआ आसान

पत्रकार बनना जिन नौनिहालों के लिये एक सपना है तो अब ये सपना साकार हो सकता है, इस के लिये न तो आपको किसी महानगर में जाना पड़ेगा और नाही बहुत रूपए खर्च करने पड़ेंगे. भोपाल में यूनिसेफ के संचार अधिकारी श्री अनिल गुलाटी की पहल पर दलित संघ, सोहागपुर के सहयोग से " बच्चों की पहल " नाम से अख़बार शुरू किया गया है.बच्चों की मुस्कान की कीमत वाले इस अख़बार में संवाददाता के रूप में सुदूर गावों में रह रहे बच्चे ही कार्यरत हैं. उधर रायपुर में मायाराम सुरजन फौन्देशन के सहयोग से "बालस्वराज्य " नामक अखबार शुरू किया है.देश की राजधानी दिल्ली से ये मुहिम प्लान इन्टरनेशनल के सहयोग से ग्रासरूट मीडिया चला रही है. चिल्ड्रन प्रेस सर्विस बुलेटिन निकाल कर. इस बुलेटिन में दिल्ली, उत्तरप्रदेश, उडीसा, उत्तरांचल और राजस्थान के बच्चे लिखते हैं. ये बुलेटिन देश भर के हिंदी अख़बारों और पत्रिकाओं में छपता है. इसे www.childrenpress.org पर भी देखा जा सकता है. अगर आप के पास भी है इसी कोई खबर तो हमें भेज दीजियेगा.