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मंगलवार, 19 अगस्त 2008

खेल पत्रकारिता में भविष्य


वर्ष 2010 में होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों को मद्देनज़र रखते हुए खेल पत्रकारिता में सुनहरे भविष्य की संभावनाएं और प्रबल हो गईं हैं. देश के अग्रणी संस्थान लक्ष्मीबाई राष्ट्रीय शारीरिक शिक्षा संस्थान, ग्वालियर ने खेल पत्रकारिता में एक वर्षीय डिप्लोमा पाठ्यक्रम प्रारंभ किया है. संस्थान में खेल पत्रकारिता एवं खेल प्रबंधन विभाग के प्रमुख डॉ वी. के. डबास के अनुसार एक वर्षीय इस पाठ्यक्रम में किसी भी विषय से स्नातक उत्तीर्ण छात्र प्रवेश ले सकते हैं. प्रवेश प्रक्रिया अभी जारी है.पाठ्यक्रम और प्रवेश के सम्बन्ध में और जानकारी एवं फार्म संस्थान की वेबसाईट http://www.lnipe.gov.in/ पर उपलब्ध है. सीधा संपर्क दूरभाष क्रमांक 0751-4000803 पर किया जा सकता है. डॉ. डबास के अनुसार पाठ्यक्रम को प्रभावी और उपयोगी बनाने के लिये संस्थान ने छात्रों को खेल पत्रकारिता संबन्धी व्यावहारिक व तकनीकी ज्ञान के लिये विशेष प्रबंध किये हैं जो कि प्रिंट एवं इलेक्ट्रोनिक मीडिया में अवसरों को लेकर हैं.

शुक्रवार, 15 अगस्त 2008

स्वत्रंत्रता दिवस की शुभकामनाएं

सभी देश वासियों को
स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं

-अपनीबात टीम

रविवार, 10 अगस्त 2008

लक्ष्य से भटका मीडिया

- मंतोष कुमार सिंह

मीडिया से जादू की छड़ी जैसे चमत्कार की अपेक्षा करना, गोबर में घी सुखाने के बराबर है। खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया के माध्यम से अब समाज में क्रातिंकारी बदलाव की अपेक्षा तो नहीं की जा सकती है। क्योकिं मीडिया रूपी तलवार में न तो अब पहले जैसी धार रही और न ही जंग लड़ने की क्षमता। बाजारवाद और प्रतिस्पर्धा के चलते मीडिया अपने लक्ष्य से भटक चुकी है। समाचार चैनलों द्वारा वह सब कुछ परोसा जा रहा है, जिसे अधिक से अधिक विज्ञापन मिले। समाचार के प्रसारण से समाज पर क्या प्रभाव पड़ रहा है, इससे चैनलों को कुछ लेना-देना नहीं है। उन्हें सिर्फ़ अब अपने उत्पाद को बेचने से मतलब है। एक शोध में भी इस बात का खुलासा हुआ है कि मीडिया को अब समाज के सरोकारों से कुछ लेना-देना नहीं है। खासकर स्वास्थ्य से संबंधी समाचारों के प्रति चैनल पूरी तरह से उदासीन हो गए हैं। एक शोध संस्थान द्वारा छ: समाचार चैनलों पर जुलाई, 2007 में किए गए अध्ययन में यह बात सामने आई है। शोध में कई चौकाने वाले तथ्य भी समाने आए हैं। अध्ययन से पता चला है कि स्वास्थ्य संबंधी विषयों पर एक माह में प्राइम टाइम पर कुल प्रसारित समाचारों की संख्या का मात्र ०.9 प्रतिशत भाग था। साथ ही कुल प्रसारण समय में से मात्र 0.7 प्रतिशत ही स्वास्थ्य संबंधी विषयों को दिया गया। यह अध्ययन जुलाई माह में किया गया था। शोध के दायरे में आज तक, डीडी न्यूज, एनडी टीवी, सहारा समय, स्टार न्यूज और जी न्यूज को रखा गया था। शाम 7 बजे से रात 11 बजे तक प्रसारित समाचारों के अध्ययन में यह पाया गया कि कुल 683 समाचारों में स्वास्थ्य संबंधी महज 55 समाचार थे। समाचारों के प्रसारण के लिए लगे कुल समय 27962 मिनट में से सिर्फ 197 मिनट स्वास्थ्य संबंधी समाचारों के लिए प्रयोग किए गए। इन समाचारों में पोषण संबंधी 2 , असंतुलन व बीमारियों संबंधी 30, स्वास्थ्य सुविधाओं संबंधी 5 , स्वास्थ्य नीति संबंधी 12 , स्वास्थ्य केद्रिंत कार्यक्रमों के 4 और स्वास्थ्य क्षेत्र के ही अन्य विषयों के 2 समाचार थे। इन समाचारों के लिए क्रमशः 18,112,18,19,8 और 22 मिनट का समय दिया गया। चौंकाने वाली बात यह रही कि स्वास्थ्य संबंधी खोज व शोध पर एक भी समाचार इस अवधि में प्रसारित नहीं हुआ। इसके विपरीत डब्ल्यूएचओ की ताजा रिपोर्ट में स्वास्थ्य से संबधिंत कई दिल-दहलाने वाले आंकड़े सामने आए हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि संक्रामक रोगों का स्तर खतरे के निशान को पार कर गया है। विश्व में संक्रामक बीमारियां काफी तेजी से फैल रही हैं। डब्ल्यूएचओ ने चेताया है कि अगर एहतियात नहीं वरते गए तो विश्व में न केवल स्वास्थ्य बल्कि अर्थव्यवस्था और सुरक्षा भी प्रभावित होंगे। ऐसे में मीडिया को स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों के प्रति गंभीर होना पड़ेगा और लोगों में इन बीमरियों के प्रति जागरूकता लानी होगी।

टीआरपी का धंधा


- मंतोष कुमार सिंह

वे कर भी क्या सकते हैं ? मजबूरी जो है। मजबूरी में इंसान को कई तरह के पापड़ बेलने पड़ते हैं। मजबूरी में आदमी किस हद तक गिर सकता है इसका अनुमान लगाना कठिन ही नहीं असंभव भी है। हमारे देश के अधिकांश समाचार टीवी चैनल भी इन दिनों टीआरपी संबंधी मजबूरी के दौर से गुजर रहे हैं। टीआरपी के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाने की होड़ मची हुई है। ऐसा व्यावसायिक प्रतियोगिता और विज्ञापन के लिए किया जा रहा है। क्यों कि टीआरपी का सीधा संबंध विज्ञापन से है। टीआरपी से ही विज्ञापन की मात्रा और मूल्य तय होता है। ऐसे में मीडिया की सामाजिक जिम्मेदारियां गौंड़ हो गईं हैं। बाजार में बने रहने और खबरों को बेचने के लिए पत्रकारिता के मिशन और परिभाषा को ताक पर रख दिया गया है। टीआरपी जुटाने के लिए चैनल दर्शकों के सामने ऐसी चीजें परोस रहे हैं, जिसे खबर तो नहीं, मनोरंजन के संसाधन की संज्ञा दी जा सकती है। अब आपको मनोहर कहानियां, सत्यकथा, सच्ची कहानियां जैसी पत्रिकाएं खरीदने की जरूरत नहीं है। क्योकिं आजकल हमारे टीवी चैनलों की शुरुआत और अंत भी ऐसे ही साहित्य से हो रहा है। घर के ङागड़े, पति-पत्नी की नोंक-झोंक , सास-बहू की तकरार अब ब्रेकिंग न्यूज में तब्दील हो गई है। सेक्स, हत्या, बलात्कार, भूत-प्रेत, राशिफल, अंधविश्वास, प्रेम-प्रसंग और अश्लीलता को खबर बनाकर बेचने का धंधा जोरों पर चल रहा है। एफआईआर, वारदात, सनसनी, क्राइम फाइल, क्राइम रिपोर्टर्र और न जाने किन-किन नामों से उद्दीपक और जुगुप्सा जगाने वाले कार्यक्रम व दृश्य प्रसारित कए जा रहे हैं। क्या सूचना तकनीक के इस युग में मीडिया का यही नया रूप है ? इन बदलावों का समाज पर क्या असर होगा ? किस रूप में नई चुनौतियां सामने आएंगी। इसके बारे में कोई संवेदनशील मीडियाकर्मी ही सोच सकता है। मुझे नहीं लगता कि ऐसे मीडियाकर्मी चैनलों के दफ्तरों में हैं। अगर हैं भी तो उन्हें व्यावसायिकता और विज्ञापनों के ढेर में कहीं दुबकने पर मजबूर होना पड़ा है। उनकी छटपटाहट कोने में दबकर नष्ट हो रही है। वर्तमान में न्यूज चैनलों ने समाचार का रास्ता छोड़कर मनोरंजन को चुन लिया है। उन्होंने उपरी वेश-भूषा इस तरह बदली है, जिसकी न तो कोई दिशा है और न दशा। ऐसे में अपराध और सेक्स को बड़ी आसानी से परोसा जा रहा है। मार्केटिंग वालों का अपना तर्क है। ऐसे कार्यक्रमों को घटिया माल की तरह आसानी से बेचाने के साथ अश्लील अंडरवियर (जिस पर पाबंदी लग गई है) जैसे महंगे विज्ञापन भी लिए जा सकते हैं। ऐसे कार्यक्रमों को परोसने में अक्ल का इस्तेमाल न के बराबर करना पड़ता है। जो सबसे सस्ता और आसान विकल्प है। ऐसे एंकर आसानी से सस्ते दामों में मिल जाते हैं।

शनिवार, 2 अगस्त 2008

नई सोच का दख़ल

युवा शक्ति और उसकी रचनात्मक सोच हमेशा से क्रांति की द्योतक रही है। यही क्रांति इतिहास के सफ़ों को समृद्ध करती आई है। बात सामाजिक परिवर्तन की हो अथवा वैचारिक क्रांति की युवाओं की शक्ति और सोच की भूमिका को नकारा नही जा सकता। ग्वालियर (जो कि मेरा गृह नगर है) में कुछ दिनों पूर्व युवा पत्रकार फिरोज़ खान के मार्फ़त मेरी मुलाक़ात अशोक भाई से हुई। अशोक भाई युवा होने के साथ-साथ सामाजिक और आर्थिक विषयों के एक अच्छे लेखक भी हैं। उनके बारे में यह कहना भी लाज़िमी होगा कि आप विचारों की शक्ति से बदलाव बनाम सुधार पर भी यकीन रखते हैं। अशोक भाई के आलेख पत्रिकाओं और समाचार पत्रों में अशोक कुमार पाण्डेय के नाम से पढ़े जा सकते है। अशोक और राजेंद्र भाई जैसे कुछ और युवा साथियों ने 'युवा संवाद' के नाम से एक अनौपचारिक संगठन बनाया है। बकौल अशोक भाई यह संगठन प्रदेश के विभिन्न शहरों में युवाओं को जोड़ कर आगे बढता जा रहा है। युवा संवाद की ग्वालियर शाखा ने हाल ही में ' नई दख़ल' नामक एक न्यूज़ लेटर का प्रकाशन शुरू किया है। शुरूआती दौर की कई स्वाभाविक कमियों से सम्पन्न इस न्यूज़ लेटर में युवाओं ने अपने कुछ कर गुज़रने के ज़ज्बे और विचारों का अच्छा निवेश किया है। फ़िलहाल दो माह में एक बार प्रकाशित होने वाले 'नई दख़ल' को लेकर 'युवा संवाद' के पास कई योजनाएं हैं। मुझे 'नई दख़ल' का दूसरा अंक मिला है। इस अंक में शहीद भगत सिंह के आलेख के साथ-साथ सुभाष गाताडे का विशेष आलेख 'अथ श्री मेरिट कथा' का प्रकाशन किया गया है। आठ प्रष्ठीय इस न्यूज़ लेटर में युवा कथाकार जितेन्द्र बिसारिया की कहानी 'वे' के अतिरिक्त केरल के स्कूलों में चल रही पाठय पुस्तक से 'जाति विहीन जीवन' लघु कथा को शामिल किया गया है। दो कविताओं के साथ-साथ ग्रामीण जीवन व किसानों की बदहाली की चिंता करता हुआ अशोक चौहान के आलेख का प्रकाशन किया गया है। 'नई दख़ल ' में न्यूज लेटर का शीर्षक ही मन किरकिरा कर देता है। इस में लिंगगत दोष है। इसके अतिरिक्त उर्दू अल्फ़ाज़ों में नुक्तों का अभाव जैसी प्रारंभिक गलतियां इस प्रयास को वांक्षित प्रशंसा और सराहना से महरूम रखती हैं। आज हम जिस दौर से गुज़र रहे हैं यदि यहां कोई सामंतवादी या पूंजीवादी व्यवस्था का विरोध करता है तो तथाकथित रूप से उसे कम्युनिष्टवादी करार दे देते है। 'नई दख़ल' में प्रकाशित सामग्री को भी इसी नज़रिए से देखा जा सकता है। दो रूपये मूल्य के 'नई दख़ल' में प्रिंट लाइन का न होना एक बडी लापरवाही है। चूंकि इस वैचारिक न्यूज़ लेटर का प्रकाशन समाज की सोच को बदलने की नेक मंशा के साथ किया गया है अतः नई दख़ल के आगामी अंको में हमें सुधार देखने को ज़रूर मिलेगा बशर्ते हम सभी अपनी प्रतिक्रियाओं से निरंतर अवगत कराएं। 'नई दख़ल' के सम्बन्ध में कोई भी ज़ानकारी अशोक भाई से उनके मोबाईल नम्बर 09425787930 पर ली जा सकती है । नई दख़ल का ई-मेल है- naidakhal@gmail.com अथवा kumar_ashok@sify.com