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रविवार, 24 फ़रवरी 2008

भारत और अमेरिकन पत्रकारों की वर्कशॉप

भारत और अमेरिका के पत्रकारों की संयुक्त कार्यशाला का आयोजन 1- अप्रेल को मुम्बई में किया जा रहा है। 6- भारतीय और 6- अमेरिकन पत्रकारों वाली इस कार्यशाला के लिये आवेदन की अन्तिम तिथि 1- मार्च है।
और अधिक जानकारी मीडिया तड़का पर उपलब्ध है।

शनिवार, 23 फ़रवरी 2008

बर्ड फ्लू से बौखलाया देश


-मंतोष कुमार सिंह

बर्ड फ्लू ने एक बार फिर भारत में दस्तक दे दी है। इस बीमारी ने केंद्र के साथ-साथ कई राज्य सरकारों की नाक में दम कर दिया है। पश्चिम बंगाल के अधिकांश जिले बर्ड फ्लू की चपेट में आ गए हैं। साथ ही पड़ोसी राज्य बिहार में भी यह बीमारी पहुंच चुकी है। कई राज्यों में ऐहतियातन सतर्कता बरती जा रही है। यह चौथा मौका है जब देश में इस घातक बीमारी ने अपना पैर फैलाया है। फरवरी 2006 में पहली बार भारत के महाराष्ट्र राज्य में बर्ड फ्लू की पुष्टि हुई थी। उस समय भी लाखों मुर्गे-मुर्गियों और पक्षियों को मारा गया था, फिलहाल पश्चिम बंगाल, बिहार के साथ-साथ कई अन्य राज्यों में बीमारी की रोकथाम के लिए मुर्गियों का काम तमाम किया जा रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस बार के बर्ड फ्लू को घातक किस्म का बताया है। संगठन का कहना है कि अगर कारगर कदम नहीं उठाए गए तो मनुष्य भी बर्ड फ्लू की चपेट में आ सकते हैं। वहीं संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन ने इसे विश्वव्यापी महामारी घोषित कर दिया है। यह बात समझ से परे है कि जब आग लगती है तभी सरकारें कुआं खोदने का काम क्यों करती हैं? पहले से कोई व्यवस्था क्यों नहीं की जाती है ? हम ऐहतियातन कदम उठाने में क्यों देर कर देते हैं ? आदेशों के पालन में शिथिलता क्यों बरतते हैं ? इस बार भी बर्ड फ्लू से निपटने में शिथिलता बरती जा रही है। बीमारी से पीड़ित मुर्गे-मुर्गियों को मारने के अभियान में कोताही बरती जा रही है। केंद्र और पश्चिम बंगाल सरकारें एक दूसरे पर दोषारोपण कर रही हैं। पोल्ट्री उद्योग अरबों का नुकसान उठा चुका है। भारत के साथ-साथ पूरे विश्व में बर्ड फ्लू का खतरा लगातार फैल रहा है। चार साल में इस बीमारी ने 65 देशों को अपनी चपेट में ले लिया है और दो सौ से भी ज्यादा लोगों को लील लिया है। इसके संक्रमण की चपेट में हर महीने एक नया देश आ रहा है। दिसंबर-2007 के बाद बांग्लादेश, भारत, चीन, मिस्त्र, जर्मनी , ब्रिटेन, इंडोनेशिया, ईरान,इजराइल , म्यांमार, पोलैंड, युक्रेन, तुर्की, रूस, वियतनाम और नाइजीरिया में बर्ड फ्लू की पुष्टि हो चुकी है। कुछ देशों में यह रोग मुर्गे-मुर्गियों के साथ टर्की, बतखों और हंसों में भी फैल चुका है। वहीं बांग्लादेश के 64 में से 29 राज्यों में यह बीमारी फैल चुकी है। डब्ल्यूएचओ का मानना है कि दुनिया भर में वर्ष 2007 में बर्ड फ्लू के मामलों और इस बीमारी से मरने वालों की संख्या में कुछ कमी जरुर आई है, लेकिन इसकी चपेट में आने वाले देशों की संख्या लगातार बढ़ रही है। 2007 के दौरान इस रोग के कुल 83 मामले सामने आए और 55 रोगियों की मौत हो गई। इससे पिछले साल 115 मामले सामने आए थे और 79 रोगियों की मौत हुई थी, लेकिन अब ज्यादा चिंता की बात है कि 65 से अधिक देश इस बीमारी की चपेट में आ चुके हैं और हर साल यह संख्या बढ़ती जा रही है। बर्ड फ्लू से इंडोनेशिया में सर्वाधिक 100 व्यक्तियों की मौत हुई है। बर्ड फ्लू 2003 में फैला था तब से 2007 तक इस रोग के कुल 346 मामले सामने आ चुके हैं और 213 रोगियों की मौत हो चुकी है। 2003 में इस रोग से मरने वालों की संख्या केवल चार थी, जो अगले वर्ष 32 और 2005 में 43 हो गई थी। यह रोग अब दक्षिण पूर्व एशिया के अलावा यूरोप के देशों को भी अपने चपेट में ले रहा है। हाल ही में ब्रिटेन में इसके वायरस पाए गए हैं। जिससे यूरोपीय देशों में खलबली मच गई। चिकित्सा विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसे मामलों की कुल अनुमानित संख्या तो बहुत अधिक होगी। डब्ल्यूएचओ द्वारा जो अन्कारे जारी किए गए हैं, वे सरकारी या बड़े अस्पतालों द्वारा दी गई सूचना पर आधारित हैं। बर्ड फ्लू नाम की बीमारी से निपटने के प्रयासों के लिए संयुक्त राष्ट्र के संयोजक डॉक्टर डेविड नेबैरो जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के लिए भी काम करते हैं ने चेतावनी दी है कि दुनिया में इसी तरह की एक नई बीमारी से भविष्य में 15 करोड़ लोगों की मौत हो सकती है। दुनिया भर में ये बीमारी कभी भी फैल सकती है। बर्ड फ्लू के वायरस में म्यूटेशन यानी अचानक बदलाव के कारण से बीमारी मनुष्यों में बहुत तेज़ी से फैलने का खतरा बढ़ गया है। जब पक्षी उड़कर दूर-दूर तक जाते हैं तो वो बीमारी को भी उन जगहों में फैला सकते हैं। ऐसी बीमारी अगर फैलती है तो उसमें कितने लोगों की जान बचाई जा सकती है ये इस पर निर्भर करेगा कि तमाम देशों की सरकारें इस बात को कितनी गंभीरता से लेती हैं। वहीं शोधकर्ताओं का कहना है कि आम फ्लू के मुकाबले बर्ड फ्लू को फेफड़ों में बहुत गहरे तक संक्रमण करना पड़ता है। यही वजह है कि मानव कोशिकाओं में बर्ड फ्लू के संक्रमण के आसार कम होते हैं, लेकिन अगर कोई व्यक्ति संक्रमित हो जाता है तो बर्ड फ्लू का वायरस (एच-5 एन-1) बहुत तेजी से फैलता है और नुकसान पहुंचाता है। बर्ड फ्लू का वायरस आसानी से उत्परिपर्तित हो सकता है, इसके बाद वायरस और भी घातक हो जाता है। एच-5 एन-1 वायरस आसानी से एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में नहीं फैलता, लेकिन इसके म्यूटेशन यानी उत्परिवर्तन का डर जताया जा रहा है। अमरीकी वैज्ञानिकों ने इस बात की पुष्टि की है कि एच-5 एन-1 वायरस दो अलग विषाणुओं में बदल चुका है। जिससे मनुष्यों के लिए खतरा बढ़ गया है। विषाणुओं के कारण बर्ड फ्लू के लिए दवा बनाने के शोध का काम और जटिल हो गया है। 2005 से पहले यही माना जा रहा था कि बर्ड फ्लू एच-5 एन-1 वायरस की एक खास किस्म की उपजाति से होता है, लेकिन नए परीक्षणों से पता चला है कि इंडोनेशिया में एच-5 एन-1 वायरस की नई उपजाति सामने आई है। वैज्ञानिकों को डर है कि एच-5 एन-1 वायरस तेजी से मनुष्य में फैल सकता है जिसके बाद बर्ड फ्लू महामारी का रूप ले सकता है। बर्ड फ्लू रोग के वायरस 15 किस्म के होते हैं, लेकिन एच-5 एन-1 ही इंसानों को अपना निशाना बनाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि जैसे वायरस इस बार दिखाई दे रहे हैं, उस तरह के वायरस 1997 में नहीं देखे गए थे यानी पिछले दस सालों में उनमें बदलाव आया है। एक जगह से दूसरी जगह जाने वाले पक्षी इस वायरस को अपने साथ ले जाते हैं, लेकिन खुद इसका शिकार नहीं होते हैं। मुर्गियों को यह वायरस आसानी से पकड़ लेता है। पहले यही समझा जाता था कि बर्ड फ्लू सिर्फ पक्षियों को होने वाली बीमारी है, लेकिन हॉगकॉंग में पहली बार एक व्यक्ति में 1997 मे बर्ड फ्लू के लक्षण पाए गए। वैज्ञानिकों का मानना है कि वे लोग इस वायरस का शिकार हो सकते हैं जो प्रभावित मुर्गियों या पक्षियों के बहुत नजदीक रहते हैं। मुर्गियों के बीट में बर्ड फ्लू के वायरस होते हैं जो हवा के साथ उड़ने लगते हैं और सांस के रास्ते लोगों के शरीर में घुस जाते हैं। ऐसे में इस बीमारी से निपटने के लिए गंभीर प्रयास करने की ज़रूरत है। सभी देशों को बर्ड फ्लू से निपटने के लिए युद्धस्तर पर जुट जाना चाहिए, नहीं तो यह अर्थव्यवस्था को चौपट कर सकता है।

टीआरपी का धंधा

हमारे सहयोगी लेखक मंतोष कुमार सिंह का विश्लेषण पूर्ण आलेख 'टीआरपी का धंधा' पढिएगा मीडिया तड़का पर। मीडिया से संबंधित खबरें और आलेख आप भी मीडिया तड़का के लिये singh.ashendra@gmail.com पर भेज सकते हैं।

सोमवार, 18 फ़रवरी 2008

लक्ष्य से भटका मीडिया

-मंतोष कुमार सिंह

मीडिया से जादू की छड़ी जैसे चमत्कार की अपेक्षा करना, गोबर में घी सुखाने के बराबर है। खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया के माध्यम से अब समाज में क्रातिंकारी बदलाव की अपेक्षा तो नहीं की जा सकती है। क्योकिं मीडिया रूपी तलवार में न तो अब पहले जैसी धार रही और न ही जंग लड़ने की क्षमता। बाजारवाद और प्रतिस्पर्धा के चलते मीडिया अपने लक्ष्य से भटक चुकी है। समाचार चैनलों द्वारा वह सब कुछ परोसा जा रहा है, जिसे अधिक से अधिक विज्ञापन मिले। समाचार के प्रसारण से समाज पर क्या प्रभाव पड़ रहा है, इससे चैनलों को कुछ लेना-देना नहीं है। उन्हें सिर्फ़ अब अपने उत्पाद को बेचने से मतलब है। एक शोध में भी इस बात का खुलासा हुआ है कि मीडिया को अब समाज के सरोकारों से कुछ लेना-देना नहीं है। खासकर स्वास्थ्य से संबंधी समाचारों के प्रति चैनल पूरी तरह से उदासीन हो गए हैं। एक शोध संस्थान द्वारा छ: समाचार चैनलों पर जुलाई, 2007 में किए गए अध्ययन में यह बात सामने आई है। शोध में कई चौकाने वाले तथ्य भी समाने आए हैं। अध्ययन से पता चला है कि स्वास्थ्य संबंधी विषयों पर एक माह में प्राइम टाइम पर कुल प्रसारित समाचारों की संख्या का मात्र ०.9 प्रतिशत भाग था। साथ ही कुल प्रसारण समय में से मात्र 0.7 प्रतिशत ही स्वास्थ्य संबंधी विषयों को दिया गया। यह अध्ययन जुलाई माह में किया गया था। शोध के दायरे में आज तक, डीडी न्यूज, एनडी टीवी, सहारा समय, स्टार न्यूज और जी न्यूज को रखा गया था। शाम 7 बजे से रात 11 बजे तक प्रसारित समाचारों के अध्ययन में यह पाया गया कि कुल 683 समाचारों में स्वास्थ्य संबंधी महज 55 समाचार थे। समाचारों के प्रसारण के लिए लगे कुल समय 27962 मिनट में से सिर्फ 197 मिनट स्वास्थ्य संबंधी समाचारों के लिए प्रयोग किए गए। इन समाचारों में पोषण संबंधी 2 , असंतुलन व बीमारियों संबंधी 30, स्वास्थ्य सुविधाओं संबंधी 5 , स्वास्थ्य नीति संबंधी 12 , स्वास्थ्य केद्रिंत कार्यक्रमों के 4 और स्वास्थ्य क्षेत्र के ही अन्य विषयों के 2 समाचार थे। इन समाचारों के लिए क्रमशः 18,112,18,19,8 और 22 मिनट का समय दिया गया। चौंकाने वाली बात यह रही कि स्वास्थ्य संबंधी खोज व शोध पर एक भी समाचार इस अवधि में प्रसारित नहीं हुआ। इसके विपरीत डब्ल्यूएचओ की ताजा रिपोर्ट में स्वास्थ्य से संबधिंत कई दिल-दहलाने वाले आंकड़े सामने आए हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि संक्रामक रोगों का स्तर खतरे के निशान को पार कर गया है। विश्व में संक्रामक बीमारियां काफी तेजी से फैल रही हैं। डब्ल्यूएचओ ने चेताया है कि अगर एहतियात नहीं वरते गए तो विश्व में न केवल स्वास्थ्य बल्कि अर्थव्यवस्था और सुरक्षा भी प्रभावित होंगे। ऐसे में मीडिया को स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों के प्रति गंभीर होना पड़ेगा और लोगों में इन बीमरियों के प्रति जागरूकता लानी होगी।

शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2008

मासूम भी नक्सली कहर का शिकार

-मंतोष कुमार सिंह
क्सलवाद से प्रभावित 11 राज्यों में से छत्तीसगढ़ की स्थिति सबसे विस्फोटक है। नक्सलियों की धमक प्रदेश के सभी जिलों में देखी जा रही है। वर्ष 2007 में देश में नक्सलियों ने 580 हत्याएं कीं। जिस में आधे से अधिक हत्याएं छत्तीसगढ़ में की गईं। पिछले कुछ वर्षों से नक्सली कहर का शिकार बच्चे भी होने लगे हैं, जिसका ताजा उदाहरण 10 फरवरी-2008 को पोलियोरोधी अभियान के दौरान देखी गई। नक्सली दहशत के कारण बस्तर संभाग में एक सौ से अधिक गांवों में पल्स-पोलियो अभियान के तहत मासूमों को पोलियोरोधी दवा नहीं पिलाई जा सकी। नक्सल प्रभावित बीजापुर के 62, दंतेवाड़ा के 50 और नारायणपुर जिले के 27 गावों के दुर्गम क्षेत्रों में होने तथा नक्सली वारदातों के भय से इन गांवों में स्वास्थ्य कार्यकर्ता नहीं पहुंच पाए। नारायणपुर जिले के ओरछा विकास खंड के अबुङामाड़ क्षेत्र मे जहां दुर्गम पहाड़ों के बीच बसे 27 गांवों में बच्चों को दवा नहीं पिलाई जा सकी। दरअसल नक्सलियों द्वारा बारूदी सुरंगों और अन्य विस्फोटों के बिछाए जाने की वजह से स्वास्थ्य कार्यकर्ता वहां तक जाने की हिम्मत नहीं जुटा सके। दूसरी ओर नक्सली कहर के चलते सुनहरे भविष्य का ख्याब बुन रहे बच्चों को कहीं अध्यापकों की कमी तो कहीं स्कूलों की समस्याओं से जूझना पड़ रहा है। कई गांवों में अभी तक स्कूल नहीं खोले जा सके हैं। दहशत के चलते अधिकांश स्कूलों में अध्यापक जाने से कतराते हैं। जहाँ टीचर हैं वहां अभिभावक अपने बच्चों को भेजना खतरे से खाली नहीं समझते हैं। कई स्कूलों पर नक्सलियों ने कब्जा जमा लिया है तो कई में पुलिस के जवानों ने डेरा डाल दिया है। ऐसे में देश का भविष्य कहे जाने वाले बच्चों का क्या होगा नक्सलवाद के चलते प्राथमिक और उच्च प्राथमिक शिक्षा क्षेत्र में छत्तीसगढ़ फिसड्डी साबित हो रहा है। 2005-06 के शिक्षा विकास इंडेक्स में देश में छत्तीसगढ़ का 22 वां स्थान था, लेकिन 2006-07 में प्रदेश पांच अंक नीचे खिसकते हुए 27 वें नंबर पर पहुंच गया है। प्राथमिक शिक्षा में प्रदेश 2005-06 के दौरान 0.557 सूचकांक मूल्य के साथ 16 वें स्थान पर था, लेकिन 2006-07 में शिक्षा का स्तर काफी नीचे चला गया। इस दौरान 0.517 सूचकांक मूल्य के साथ छत्तीसगढ़ी पूरे देश में 27 वां स्थान ही पा सका। वहीं उच्च प्राथमिक शिक्षा में प्रदेश को 26 वां स्थान मिला है। इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि केंद्र और राज्य सरकार के अधिकाँश प्रयास बेकार साबित हो रहे हैं। शिक्षा विकास इंडेक्स 2006-07 पर नज़र डालें तो मात्र 58.61 प्रतिशत स्कूल ही पक्के भवनों में चल रहे हैं। 84.97 प्रतिशत स्कूलों में ही पीने का पानी उपलब्ध है, वहीं 26.65 स्कूलों में लड़के और लड़कियों के लिए अलग प्रसाधन की व्यवस्था नहीं है। मात्र 13.33 प्रतिशत स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग प्रसाधन है। 41.52 स्कूलों में ही चारदीवारी है। कंप्यूटर के मामले में छत्तीसगढ़ काफी पीछे है। प्रदेश के मात्र 5.71 प्रतिशत स्कूलों में ही कंप्यूटर है, जबकि 29.67 प्रतिशत स्कूलों में ही रसोईघर की व्यवस्था है। प्रदेश के प्राथमिक स्कूल शिक्षकों की भारी कमी से जूझ रहे हैं। लगभग 17 प्रतिशत सरकारी स्कूलों में अध्यापक नहीं हैं, जबकि 7.74 प्रतिशत प्राथमिक और उच्च प्राथमिक स्कूल एक शिक्षक के सहारे चल रहे हैं। इसमें प्राथमिक स्कूलों का प्रतिशत 10.65 है। ऐसे में 2010 तक 6 से 14 वर्ष के समस्त बच्चों को प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध करना मुश्किल ही नहीं असंभव भी है।
(मंतोष कुमार सिंह दैनिक हरिभूमि (रायपुर) में वरिष्ठ उप संपादक के पद पर कार्यरत हैं और जनसामान्य तथा विकास से जुडे मुद्दों पर गहरी पकड़ के साथ लेखन करते हैं.)

रविवार, 10 फ़रवरी 2008

गंदगी...गंदगी बनाम मौत

-आशेन्द्र सिंह
हा
ही में दुनिया भर के 60 स्वास्थ्य समूहों की एक रिपोर्ट में खुलासा किया गया है कि दुनिया में प्रतिदिन लगभग 5 हज़ार बच्चों की मौत साफ़ - सफ़ाई में लापरवाही के कारण या कह सकते हैं गंदगी के कारण होती है । इस रिपोर्ट के तथ्यों को अख़बारों ने प्रमुखता से स्थान दिया। मीडिया के लिये यह एक ख़बर बन कर रह गई, किन्तु हम सब के लिए एक चिंता का विषय है। प्रतिदिन काल के गाल में समां जाने वाले इन बच्चों में एक बड़ी संख्या भारत के बच्चों की भी है।
इन मौतों के लिये सिर्फ साफ़- सफ़ाई का न होना ही ज़िम्मेदार नहीं है , बल्कि गरीबी, अशिक्षा, भ्रष्टाचार, राजनीति और इच्छाशक्ति की कमी जैसी सामजिक और व्यवस्थागत गंदगी भी जिम्मेदार है। रेलवे प्लेटफार्म हो अथवा पार्क सहित अन्य कोई सार्वजनिक स्थान यहाँ मैले-कुचैले कपड़ों में घूमते बच्चे कूड़ेदान खंगालते नज़र आते हैं। आपने खाया, जो बचा उसे फ़ेंक दिया यही इन बच्चों का भोजन होता है। जिस घर में रोज़ी - रोटी का इंतज़ाम न हो उस घर में इन बच्चों की दवाई कराना महज़ एक शिगूफा हो सकता है। सरकार ने अपनी उपलब्धियों की प्रतिपूर्ति के लिये इन के लिए पीला कार्ड बना दिया। ये पीला कार्ड इन के लिये सिर्फ़ एक दस्तावेज़ बनकर रह गया है। अगर इस कार्ड से इन्हें कभी राशन मिलता भी है तो वह इन के स्वास्थ्य को बद से बद्द्तर बनने वाला होता है। जिस के पास दो जून की रोटी न हो उन के यहाँ शौचालय की अपेक्षा करना किसी चुटकुले से कम नहीं।
ग़रीबी की मार झेल रहे परिवारों के बच्चों को शिक्षित करना, सरकारी और ग़ैर सरकारी संस्थाओं के लिये फंड निकलने का एक ज़रिया तो हो सकता है , लेकिन यथार्थ में यह बेमानी है। बालश्रम को समाप्त करने के लिए कानून बना, आंदोलन हुए पर निष्कर्ष...! आज आला -अफ़सरों के यहाँ काम करने वाले ज्यादातर बच्चे ही हैं। इन अफ़सरों के यहाँ का बचा और बासी खाना ही इन के यहाँ काम करने वाले बच्चों का पेट भरता है। ये परिस्थितियां ही हैं जो इन बच्चों को शारीरिक शोषण जैसे कृत्य के बाद भी मौन रखतीं हैं। स्कूलों में मध्यान्ह भोजन में बच्चों को क्या और किस गुणवत्ता का तथा कितना मिलता है ? यह सिर्फ़ और सिर्फ़ कागज़ी घोडे हैं जो सरकार को रेस जितने में लगे हैं । आंगनबाडी में बच्चों के लिये आनेवाला पोषाहार पशुओं को खिलाया जा रह है। ग्रामीण क्षेत्रों में जाति व्यवस्था का अज़गर अभी भी गरीब और दलितों पर घात लगाए बैठा है।
हमारी सरकार और उसके हुकुमरान पांच सितारा होटलों के वातानुकूलित कमरों में बैठ कर ग़रीब बच्चों की स्तिथि पर चर्चा करते हैं। मिनिरल वाटर पीते हुए सोचते हैं कि बच्चों को स्कूलों में पीने का साफ़ पानी कैसे मुहैया कराया जाए ? बात बच्चों की मौत के अकडों पर ही करें तो कन्याभ्रूण हत्या , स्वास्थ्य सुविधाओं की पहुंच न होने के कारण होने वाली बच्चों की मौत जैसे कई पक्षों पर भी नज़र डाली जाए।
मैंने जिस रिपोर्ट का ज़िक्र शुरुआत में किया है उस में इस बात का खुलासा भी किया गया है कि 40 फ़ीसदी लोगों के पास शौचालय की सुविधा नहीं है। शौचालय की सुविधा न होने से अक्सर बच्चे खुले मैं सौंच जाते हैं। खुले में सौच जाना डायरिया को बढ़ावा तो देता ही है साथ ही पोलियो जैसी बीमारी का मुख्य कारण भी बनता है। इस तरह के कई अन्य कारण हैं जो बच्चों को शारीरिक और मानसिक रूप से विकलांग बनाते हैं।
मै सिर्फ व्यवस्था का नकारात्मक पहलू ही नहीं देख रहा , मै बच्चों के उत्थान के लिये किए जा रहे प्रयासों से भी सहमत हूँ और उनके दूरगामी सकारात्मक परिणामों को लेकर आशान्वित हूँ , लेकिन सच तो सचही है न...!

शनिवार, 2 फ़रवरी 2008

अपने दिल की कहिए...


संत की दस्तक ने एक बार फिर से तन, मन और उपवन में आग लगा दी है। वसुन्धरा के श्रृंगार ने मन में अलसाए प्रेम को फिर से चैतन्य कर दिया है। मै भी छलांग लगाने को तैयार हूँ।
'खुसरो दरिया प्रेम का, उल्टी वा की धार,
जो उतरा सो डूब गया जो डूबा सो पार,
मेरे इस माद्दे को और बल मिल जाता है जब फ़िराक साहब की बात मान लेता हूँ -

'कोई समझे तो एक बात कहूं
इश्क तौफ़ीक है गुनाह नहीं,
विज्ञान, साहित्य और शास्त्रों के उदाहरणों और तर्कों के बावज़ूद भी ये गुनाह कर डाला । विज्ञान ने कहा ये तो हारमोन...वगैरह के कारण होता ही है । साहित्य ने उम्र , रूप और जात -पात, धर्म के सारे बंधन ख़त्म कर दिए। शास्त्रों ने कहा प्रेम ही सत्य है इस लिए ईश्वर से प्रेम करो... ! बावज़ूद इन सब के मुझ में ये तौफ़ीक थी कि मैंने इश्क किया। अंत में दुनिया - दारी ने एक पाठ पढ़ाया
' ये सम ही सो कीजिए
ब्याह बैर और प्रीत,
इस पाठ में फ़ैल हो गया। और बशीर बद्र साहब की बात मान बैठा -
ये मोहब्बतों की कहानियां भी बड़ी अजीबो- ग़रीब हैं
तुझे मेरा प्यार नहीं मिला, मुझे उसका प्यार नहीं मिला
हालांकि बकौल निदा साहब ये टीस तो है -
'दुःख तो मुझ को भी हुआ, मिला न तेरा साथ
शायद तुझ में भी न हो, तेरी जैसी बात'
अगर आप के अन्दर भी है कोई ऐसा ही दर्द, अहसास या आग, किसी खूबसूरत लम्हे की याद... अनुभूति। तो मेरे इस यज्ञ में आहुति देने के लिये आप भी प्रेम सहित आमंत्रित हैं । अगर आमंत्रण से परहेज हो तो अनियंत्रित हो कर भी इस सागर में गोता लगा सकते हैं।
अपनीबात... पर होगी इस माह प्रेम की बात। अपने दिल की कहिए कैसे भी...