-आशेन्द्र सिंह
हमारे गाँव में एक लड़की थी सोमातिया। जब भी उसे इस नाम से पुकारा जाता मेरे मन में एक प्रश्न चिन्ह लग जाता कि भला ये भी कोई नाम है ? बहुत सालों बाद पता चला कि उसका असली नाम सोमता है , लेकिन ( तथाकथित रूप से ) निम्न जाति का होने के कारण सभी लोग ( सोमता के घर वाले भी ) उसे सोमातिया कहकर ही बुलाते हैं .
कहने के लिये तो यह कहा जाता है कि बच्चों की पहली पाठशाला उनका घर होती है। मै भी यही मानता हूँ और लिंग आधारित असमानता का पाठ यहीं से शुरू हो जाता है. इसमें सर्वाधिक मार लड़कियों को ही झेलनी पड़ती है.ये मार भ्रूण से लेकर जन्म-जिन्दगी और अन्तिम साँस तक तो चलती ही है, मरने के बाद भी परिलक्षित होती है.
पिछले लगभग दो दशक से लड़कियों की संख्या ( लड़कों के मुकाबले ) में आरही गिरावट ने कन्या भ्रूण हत्या जैसे कृत्य के खिलाफ कानून बनाने के लिए विवश किया . इस के लिये जन - जागरूकता अभियान भी चल रहे हैं . लड़के के जन्म पर कांसे ( एक धातु ) की थाली बजे या मिठाई बटे , लेकिन लड़की का जन्म मातमी माहौल पैदा कर देता है .घर में लड़के के मुकाबले लड़की को न तो उचित खानपान व परवरिश मिलती है और न ही स्वास्थ्य व शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाएँ. समाज की इसी भेदभाव पूर्ण मानसिकता नें कन्याशाला जैसी संस्थाओं को जन्म दिया है . गरीबी महिलाओं की सबसे बड़ी दुश्मन है. गरीबी का दंश महिलाओं को जन्म से लेकर मौत तक शारीरिक और मानसिक रूप से प्रताड़ित करता है. गरीबी लड़कियों को अशिक्षा व भेदभाव का शिकार बनाने में मुख्य भूमिका अदा करती है . लड़कियों के साथ होने वाले भेदभाव के चलते उनकी शादी बहुत कम उम्र में कर दी जाती है और गरीबी तथा जातिआधारित भेदभाव ' गरीब की लुगाई - सारे गाँव की भौजाई ' का कारण बनता है . ये सभी कारण लड़कियों को घरेलू और सामजिक हिंसा का शिकार तो बनाते ही हैं साथ ही शारीरिक शोषण व उत्पीड़न की मार भी इन्हें झेलनी पड़ती है.संयुक्त राष्ट्र बाल कोष ( यूनिसेफ ) की 2007 की सालाना रिपोर्ट में विश्व स्वास्थ्य संगठन के अध्ययन के निष्कर्षों का हवाला देते हुए बताया है कि ' महिलाएं और लड़कियाँ अक्सर घर के भीतर और बाहर शारीरिक और यौन हिंसा या जोर - जबर्दस्ती का शिकार होतीं हैं. 15 से 71 प्रतिशत महिलाएं अपने करीबी साथी से शारीरिक या यौन हिंसा की मार झेलती हैं . महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा में घरेलू हिंसा सबसे अधिक प्रचलित है ' रिपोर्ट कहती है ' दुनिया में 21 प्रतिशत बच्चे यौन अत्याचार की मार झेलते हैं। जिसमें लड़कियां ज्यादा रहतीं हैं ' लोकतांत्रिक व्यवस्था में महिलाओं को रिजर्वेशन के तहत स्थान तो मिलने लगा है , लेकिन उन्हें महज़ 'रबर स्टाम्प ' के रूप में इस्तेमाल किया जाता है . सरपंच से लेकर जिला स्तर तक के निर्वाचित पदों में यह स्तिथि सर्वाधिक ख़राब है. महिलाओं को निर्णय लेने का अधिकार न घर में रहता है न बाहर . कार्यस्थलों पर महिला यौन उत्पीड़न आज दुनिया भर के लिए एक जटिल व चिंतनीय समस्या बन गई है. ग्रामीण व शहरी दोनों ही क्षेत्रों में महिलाओं को मिलने वाली मजदूरी में भी असमानता देखने को मिलती है. जिस काम के लिये पुरुषों को 70 रूपए मिलते हैं उसी काम की मजदूरी महिलाओं को 50 या 60 रूपए दी जाती है . इस के अतिरिक्त कष्टप्रद व मेहनत वाला काम महिलाओं के हिस्से में ही रहता है . उदाहरण के लिये पानी से भरे खेतों में झुक कर धान की पौध रोपने का काम ज्यादातर महिलायें ही करतीं हैं . मैनें हिन्दू धर्म के कई चालीसा व कई शास्त्र देखे हैं सभी में पुत्र प्राप्ति की कामना व आराधना का उल्लेख मिलता है . इतनां ही नहीं राजस्थान में मैनें देखा है कि पुरुषों का म्रत्युभोज 13 वें दिन होता है जबकि महिला का 12 वें दिन. अर्थात जन्म से म्रत्यु के बाद तक वही भेदभाव... घर में चौका - चूल्हे से लेकर खेती - किसानी व अन्य कार्यों में महिला एक कुशल गृहणी के साथ - साथ प्रबंधक की भूमिका अदा करती है. आइये हम सब लिंग आधारित मानसिकता को समाप्त कर महिलाओं को समान अधिकार व समानता का दर्जा दें !
हमारे गाँव में एक लड़की थी सोमातिया। जब भी उसे इस नाम से पुकारा जाता मेरे मन में एक प्रश्न चिन्ह लग जाता कि भला ये भी कोई नाम है ? बहुत सालों बाद पता चला कि उसका असली नाम सोमता है , लेकिन ( तथाकथित रूप से ) निम्न जाति का होने के कारण सभी लोग ( सोमता के घर वाले भी ) उसे सोमातिया कहकर ही बुलाते हैं .
कहने के लिये तो यह कहा जाता है कि बच्चों की पहली पाठशाला उनका घर होती है। मै भी यही मानता हूँ और लिंग आधारित असमानता का पाठ यहीं से शुरू हो जाता है. इसमें सर्वाधिक मार लड़कियों को ही झेलनी पड़ती है.ये मार भ्रूण से लेकर जन्म-जिन्दगी और अन्तिम साँस तक तो चलती ही है, मरने के बाद भी परिलक्षित होती है.
पिछले लगभग दो दशक से लड़कियों की संख्या ( लड़कों के मुकाबले ) में आरही गिरावट ने कन्या भ्रूण हत्या जैसे कृत्य के खिलाफ कानून बनाने के लिए विवश किया . इस के लिये जन - जागरूकता अभियान भी चल रहे हैं . लड़के के जन्म पर कांसे ( एक धातु ) की थाली बजे या मिठाई बटे , लेकिन लड़की का जन्म मातमी माहौल पैदा कर देता है .घर में लड़के के मुकाबले लड़की को न तो उचित खानपान व परवरिश मिलती है और न ही स्वास्थ्य व शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाएँ. समाज की इसी भेदभाव पूर्ण मानसिकता नें कन्याशाला जैसी संस्थाओं को जन्म दिया है . गरीबी महिलाओं की सबसे बड़ी दुश्मन है. गरीबी का दंश महिलाओं को जन्म से लेकर मौत तक शारीरिक और मानसिक रूप से प्रताड़ित करता है. गरीबी लड़कियों को अशिक्षा व भेदभाव का शिकार बनाने में मुख्य भूमिका अदा करती है . लड़कियों के साथ होने वाले भेदभाव के चलते उनकी शादी बहुत कम उम्र में कर दी जाती है और गरीबी तथा जातिआधारित भेदभाव ' गरीब की लुगाई - सारे गाँव की भौजाई ' का कारण बनता है . ये सभी कारण लड़कियों को घरेलू और सामजिक हिंसा का शिकार तो बनाते ही हैं साथ ही शारीरिक शोषण व उत्पीड़न की मार भी इन्हें झेलनी पड़ती है.संयुक्त राष्ट्र बाल कोष ( यूनिसेफ ) की 2007 की सालाना रिपोर्ट में विश्व स्वास्थ्य संगठन के अध्ययन के निष्कर्षों का हवाला देते हुए बताया है कि ' महिलाएं और लड़कियाँ अक्सर घर के भीतर और बाहर शारीरिक और यौन हिंसा या जोर - जबर्दस्ती का शिकार होतीं हैं. 15 से 71 प्रतिशत महिलाएं अपने करीबी साथी से शारीरिक या यौन हिंसा की मार झेलती हैं . महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा में घरेलू हिंसा सबसे अधिक प्रचलित है ' रिपोर्ट कहती है ' दुनिया में 21 प्रतिशत बच्चे यौन अत्याचार की मार झेलते हैं। जिसमें लड़कियां ज्यादा रहतीं हैं ' लोकतांत्रिक व्यवस्था में महिलाओं को रिजर्वेशन के तहत स्थान तो मिलने लगा है , लेकिन उन्हें महज़ 'रबर स्टाम्प ' के रूप में इस्तेमाल किया जाता है . सरपंच से लेकर जिला स्तर तक के निर्वाचित पदों में यह स्तिथि सर्वाधिक ख़राब है. महिलाओं को निर्णय लेने का अधिकार न घर में रहता है न बाहर . कार्यस्थलों पर महिला यौन उत्पीड़न आज दुनिया भर के लिए एक जटिल व चिंतनीय समस्या बन गई है. ग्रामीण व शहरी दोनों ही क्षेत्रों में महिलाओं को मिलने वाली मजदूरी में भी असमानता देखने को मिलती है. जिस काम के लिये पुरुषों को 70 रूपए मिलते हैं उसी काम की मजदूरी महिलाओं को 50 या 60 रूपए दी जाती है . इस के अतिरिक्त कष्टप्रद व मेहनत वाला काम महिलाओं के हिस्से में ही रहता है . उदाहरण के लिये पानी से भरे खेतों में झुक कर धान की पौध रोपने का काम ज्यादातर महिलायें ही करतीं हैं . मैनें हिन्दू धर्म के कई चालीसा व कई शास्त्र देखे हैं सभी में पुत्र प्राप्ति की कामना व आराधना का उल्लेख मिलता है . इतनां ही नहीं राजस्थान में मैनें देखा है कि पुरुषों का म्रत्युभोज 13 वें दिन होता है जबकि महिला का 12 वें दिन. अर्थात जन्म से म्रत्यु के बाद तक वही भेदभाव... घर में चौका - चूल्हे से लेकर खेती - किसानी व अन्य कार्यों में महिला एक कुशल गृहणी के साथ - साथ प्रबंधक की भूमिका अदा करती है. आइये हम सब लिंग आधारित मानसिकता को समाप्त कर महिलाओं को समान अधिकार व समानता का दर्जा दें !
2 टिप्पणियां:
ashendra ji ,
kafi dino baad ap ko pad kar accha laga.
aapka lekh better hin.mehnat ki jhalk hin.mukesh
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