- मंतोष कुमार सिंह
वे कर भी क्या सकते हैं ? मजबूरी जो है। मजबूरी में इंसान को कई तरह के पापड़ बेलने पड़ते हैं। मजबूरी में आदमी किस हद तक गिर सकता है इसका अनुमान लगाना कठिन ही नहीं असंभव भी है। हमारे देश के अधिकांश समाचार टीवी चैनल भी इन दिनों टीआरपी संबंधी मजबूरी के दौर से गुजर रहे हैं। टीआरपी के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाने की होड़ मची हुई है। ऐसा व्यावसायिक प्रतियोगिता और विज्ञापन के लिए किया जा रहा है। क्यों कि टीआरपी का सीधा संबंध विज्ञापन से है। टीआरपी से ही विज्ञापन की मात्रा और मूल्य तय होता है। ऐसे में मीडिया की सामाजिक जिम्मेदारियां गौंड़ हो गईं हैं। बाजार में बने रहने और खबरों को बेचने के लिए पत्रकारिता के मिशन और परिभाषा को ताक पर रख दिया गया है। टीआरपी जुटाने के लिए चैनल दर्शकों के सामने ऐसी चीजें परोस रहे हैं, जिसे खबर तो नहीं, मनोरंजन के संसाधन की संज्ञा दी जा सकती है। अब आपको मनोहर कहानियां, सत्यकथा, सच्ची कहानियां जैसी पत्रिकाएं खरीदने की जरूरत नहीं है। क्योकिं आजकल हमारे टीवी चैनलों की शुरुआत और अंत भी ऐसे ही साहित्य से हो रहा है। घर के ङागड़े, पति-पत्नी की नोंक-झोंक , सास-बहू की तकरार अब ब्रेकिंग न्यूज में तब्दील हो गई है। सेक्स, हत्या, बलात्कार, भूत-प्रेत, राशिफल, अंधविश्वास, प्रेम-प्रसंग और अश्लीलता को खबर बनाकर बेचने का धंधा जोरों पर चल रहा है। एफआईआर, वारदात, सनसनी, क्राइम फाइल, क्राइम रिपोर्टर्र और न जाने किन-किन नामों से उद्दीपक और जुगुप्सा जगाने वाले कार्यक्रम व दृश्य प्रसारित कए जा रहे हैं। क्या सूचना तकनीक के इस युग में मीडिया का यही नया रूप है ? इन बदलावों का समाज पर क्या असर होगा ? किस रूप में नई चुनौतियां सामने आएंगी। इसके बारे में कोई संवेदनशील मीडियाकर्मी ही सोच सकता है। मुझे नहीं लगता कि ऐसे मीडियाकर्मी चैनलों के दफ्तरों में हैं। अगर हैं भी तो उन्हें व्यावसायिकता और विज्ञापनों के ढेर में कहीं दुबकने पर मजबूर होना पड़ा है। उनकी छटपटाहट कोने में दबकर नष्ट हो रही है। वर्तमान में न्यूज चैनलों ने समाचार का रास्ता छोड़कर मनोरंजन को चुन लिया है। उन्होंने उपरी वेश-भूषा इस तरह बदली है, जिसकी न तो कोई दिशा है और न दशा। ऐसे में अपराध और सेक्स को बड़ी आसानी से परोसा जा रहा है। मार्केटिंग वालों का अपना तर्क है। ऐसे कार्यक्रमों को घटिया माल की तरह आसानी से बेचाने के साथ अश्लील अंडरवियर (जिस पर पाबंदी लग गई है) जैसे महंगे विज्ञापन भी लिए जा सकते हैं। ऐसे कार्यक्रमों को परोसने में अक्ल का इस्तेमाल न के बराबर करना पड़ता है। जो सबसे सस्ता और आसान विकल्प है। ऐसे एंकर आसानी से सस्ते दामों में मिल जाते हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें