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मंगलवार, 15 मई 2012


शनिवार, 10 सितंबर 2011

कारवाँ गुज़र गया

गोपालदास नीरज

स्वप्न झरे फूल से,
मीत चुभे शूल से,
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से,
और हम खड़ेखड़े बहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे!

नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई,
पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई,
पातपात झर गये कि शाख़शाख़ जल गई,
चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई,
गीत अश्क बन गए,
छंद हो दफन गए,
साथ के सभी दिऐ धुआँधुआँ पहन गये,
और हम झुकेझुके,
मोड़ पर रुकेरुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

क्या शबाब था कि फूलफूल प्यार कर उठा,
क्या सुरूप था कि देख आइना सिहर उठा,
इस तरफ ज़मीन उठी तो आसमान उधर उठा,
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा,
एक दिन मगर यहाँ,
ऐसी कुछ हवा चली,
लुट गयी कलीकली कि घुट गयी गलीगली,
और हम लुटेलुटे,
वक्त से पिटेपिटे,
साँस की शराब का खुमार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ,
होठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ,
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ,
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ,
हो सका न कुछ मगर,
शाम बन गई सहर,
वह उठी लहर कि दह गये किले बिखरबिखर,
और हम डरेडरे,
नीर नयन में भरे,
ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे!

माँग भर चली कि एक, जब नई नई किरन,
ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमक उठे चरनचरन,
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन,
गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयननयन,
पर तभी ज़हर भरी,
गाज एक वह गिरी,
पुँछ गया सिंदूर तारतार हुई चूनरी,
और हम अजानसे,
दूर के मकान से,
पालकी लिये हुए कहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

बुधवार, 7 सितंबर 2011

माया बहन जी

माया बहन जी की सेंडिल लेने विमान मुंबई जाता है. उधर जब बात नोटों की माला पहनने की आती है तो माया मैडम का जिक्र जरूर आता है. जब जिन्दा सुप्रीमो की मूर्ती बनवाने की बात होती है तब भी माया मैडम. माया की माया कौन जान सकता है, बहन जी आप से एक निवेदन है की इस बार जब भी आप अपना विमान मुंबई भेजें हमारे मठ्ल्लू को जरुर भेज दें उसे बिपासा जी को देखने का बहुत मन है. सुखिया इस के लिए आपकी आभारी रहेगी. आप इन मीडिया वालों से मत डरा करो इनकी तो आदत हो गयी है लोगों के कपडे उतारने की. जय हो.

रविवार, 4 सितंबर 2011

मेरे गुरु प्रभाकर जी

मुझे मेरे सही गुरु से पहला साक्षात्कार बी ए के दौरान हुआ. एमए करते - करते उनका पूरा आशीर्वाद मेरे साथ रहा. डॉ. ओम प्रभाकर देश के जाने माने साहित्यकार तो है ही साथ ही मुझे एक गुरु के रूप में उनका सानिध्य भी मिला यह मेरा सौभाग्य रहा. गुरु जी मै फ़िलहाल आपके सम्पर्क में नहीं हूँ , लेकिन आप जहां भी रहें हजारों साल जियें एक शिष्य के रूप में ईश्वर से मेरी यही कामना है.

शनिवार, 27 अगस्त 2011

क्या है जान लोकपाल बिल

- निधि शाह
कुछ जागरूक नागरिकों द्वारा शुरू की गई एक पहल का नाम है 'जन लोकपाल बिल'. इस कानून के अंतर्गत, केंद्र में लोकपाल और राज्यों में लोकायुक्त का गठन होगा. जस्टिस संतोष हेगड़े, प्रशांत भूषण और अरविन्द केजरीवाल द्वारा बनाया गया यह विधेयक लोगो के द्वारा वेबसाइट पर दी गयी प्रतिक्रिया और जनता के साथ विचार विमर्श के बाद तैयार किया गया है. यह संस्था निर्वाचन आयोग और सुप्रीम कोर्ट की तरह सरकार से स्वतंत्र होगी. कोई भी नेता या सरकारी अधिकारी जांच की प्रक्रिया को प्रभावित नहीं कर पायेगा. इस बिल को शांति भूषण, जे. एम. लिंगदोह, किरण बेदी, अन्ना हजारे आदि का भारी समर्थन प्राप्त हुआ है.

इस बिल की मांग है कि भ्रष्टाचारियो के खिलाफ किसी भी मामले की जांच एक साल के भीतर पूरी की जाये. परिक्षण एक साल के अन्दर पूरा होगा और दो साल के अन्दर ही भ्रष्ट नेता व आधिकारियो को सजा सुनाई जायेगी . इसी के साथ ही भ्रष्टाचारियो का अपराध सिद्ध होते ही उनसे सरकर को हुए घाटे की वसूली भी की जाये. यह बिल एक आम नागरिक के लिए मददगार जरूर साबित होगा, क्यूंकि यदि किसी नागरिक का काम तय समय में नहीं होता तो लोकपाल बिल दोषी अफसर पर जुरमाना लगाएगा और वह जुरमाना शिकायत कर्ता को मुआवजे के रूप में मिलेगा. इसी के साथ अगर आपका राशन कार्ड, मतदाता पहचान पत्र, पासपोर्ट आदि तय समय के भीतर नहीं बनता है या पुलिस आपकी शिकायत दर्ज नहीं करती है तो आप इसकी शिकायत लोकपाल से कर सकते है. आप किसी भी तरह के भ्रष्टाचार की शिकायत लोकपाल से कर सकते है जैसे कि सरकारी राशन में काला बाजारी, सड़क बनाने में गुणवत्ता की अनदेखी, या फिर पंचायत निधि का दुरूपयोग.

लोकपाल के सदस्यों का चयन जजों, नागरिको और संवैधानिक संस्थायो द्वारा किया जायेगा. इसमें कोई भी नेता की कोई भागीदारी नहीं होगी. इनकी नियुक्ति पारदर्शी तरीके से, जनता की भागीदारी से होगी.
सीवीसी, विजिलेंस विभाग, सी बी आई की भ्रष्टाचार निरोधक विभाग (ऐन्टी करप्शन डिपार्ट्मन्ट) का लोकपाल में विलय कर दिया जायेगा. लोकपाल को किसी जज, नेता या अफसर के खिलाफ जांच करने व मुकदमा चलाने के लिए पूर्ण अधिकार प्राप्त होंगें.

इस बिल की प्रति प्रधानमंत्री एवं सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को १ दिसम्बर २०१० को भेजी गयी थी, जिसका अभी तक कोई जवाब नहीं मिला है. इस मुहीम के बारे में आप ज्यादा जानकारी के लिए www.indiaagainstcorruption.org पर जा सकते हैं. इस तरह की पहल से समाज में ना सिर्फ एक उम्दा सन्देश जाएगा बल्कि, एक आम नागरिक का समाज के नियमों पर विश्वास भी बढेगा. हर सरकार जनता के प्रति जवाबदेह है, और भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाना हर नागरिक का हक है.
(लेखिका सिम्बोयोसिस इंस्टिट्यूट ऑफ़ मीडिया एंड कम्युनिकेशन की छात्रा हैं )
सिटिज़न न्यूज़ सर्विस से जनहित में साभार

शनिवार, 30 जुलाई 2011

छोटी उम्र का बड़ा सपना

जब किसी इंसान को कुछ पाने की लालसा होती है तब वो उसे पूरी ईमानदारी के साथ हांसिल करने की कोशिश करता है फिर लक्ष्य उसका कुछ भी हो....इसी तरह मेरे जीवन का भी एक लक्ष्य है जो की है एक प्रसिद्ध एंकर बनना...करीब १० साल की उम्र से ही ये सपना लिए हुए...हालाँकि मुझे यह पता नहीं था की एक एंकर बन्ने के लिए क्या करना पड़ता है बस बचपन मैं यही सोचती थी की टी।वी.पर माइक लेकर मैं भी आऊं एक दिन... मुझे भी बोलना है औरों की तरह...उसके बाद समय बीतता गया मैंने स्कूली पदाई ख़त्म करके कॉलिज मैं दाखिला लिया और बी.सी.ए.करने का निर्णय लिया...उसी दौरान मेरे एक टीचर ने जिनका नाम श्री केशव है यह बताया की मेरे अन्दर एंकर बन्ने के गुण हैं इसलिए मैं जेर्न्लिस्म का कोर्स करूँ... बस तभी से मैंने ठान ली की अब तो बी.सी.ए.ख़त्म करने के बाद एम .जे.एम .सी.की ही डिग्री करनी है...फिर थोडा और समय बीता तो मुझे अपने घर की आर्थिक स्थिति खराब होते हुए दिखी तब मैंने दिल्ली की एक कंम्पनी मैं जॉब करने का मन बनाया यह सोचकर की माँ -बाप को थोड़ा तो रिलेक्स मिले...फिर मैंने दो साल तक दिल्ली में ही जॉब की॥दिल्ली मैं एम.जे.एम.सी. का इतना स्कोप देखा तो मैंने वहीँ पर गुरु जभेश्वर यूनिवर्सिटी मैं डिस्टेंस कोर्स के साथ दाखिला ले लिया लेकिन पहले दिन की क्लास मैं ही मुझे एक टीचर के दुआरा पता चला की एम.जे.एम.सी. तो ग्वालियर मैं भी है वो भी रेगुलर कोर्स तब मैंने वहाँ से जॉब छोडी और बिना कुछ सोचे समझे ग्वालियर आ गयी...और आज मैं जीवाजी यूनिवर्सिटी सेकेण्ड सेमेस्टर की छात्रा हूँ...

शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

मछली जल की रानी है...

"मछली जल की रानी है और शीला की जवानी है" ये वाक्य मैंने एक आठ दस साल के बच्चे के मुंह से सुना...ये सुनकर पहले तो मुझे हंसी आई लेकिन फिर मेरे दिमाग ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया की कैसे हमारे देश के बच्चों पर फूहड़ता भरे गानों का असर कितनी जल्दी आ जाता है ...उन्हें ये नहीं पता होता की वो जो बोल रहे हैं या वो जो गा रहे हैं किस हद तक सही है ..बस उन्हें गाने से मतलब होता है और सही भी है यदि उन्हें यही पता हो की क्या सही है और क्या गलत तो वह बच्चे ही क्यूँ कह्लाने लगे ...हालाँकि इन गानों की समय सीमा बहुत कम होती हे लेकिन जितने समय तक होती है उसी टाइम में बच्चे तो बच्चे बड़ों की भी जुबान पर उनका नाम रहता है... अगर हम पहले की बात करें तो फिल्मों या गानों मैं इतनी फूहड़ता तो नहीं होती थी तब शायद ही किसी बच्चे ने एक नर्सरी कक्षा की कविता को एक गाने के साथ जोड़कर गाया होगा...ऐसा मेरा मानना है..लेकिन देखा जाए तो आजकल के दौर मैं युवा इसी तरह के गानों और फिल्मों को देखना पसंद करते हैं इसलिए यही देखकर निर्माता ऐसी ही पिक्चरें बनाते हैं...इसमें उनकी भी कोई गलती नहीं है कहते भी हैं जो दिखता है वही बिकता है...और फिर उन्हें भी तो पैसा कमाना है ना ..एक बार मैं पहले के समय की बात उठाना चाहूंगी की पहले क्या वो लोग युवा नहीं थे जो बिना फूहड़ता भरी फिल्में पसंद किया करते थे..?क्या उन्हें मज़े करना अच्छा नहीं लगता था ?तब तो हम सभी अपने पूरे परिवार के साथ फिल्मों का आनंद लिया करते थे लेकिन अब वैसी सभ्य फ़िल्में बनती कहाँ हैं कुछ फ़िल्में तो ऐसी ऐसी बनी होती हैं की अगर कोई इंसान अकेला भी देख रहा हो तो भी उसको शर्म आ "मछली जल की रानी है और शीला की जवानी है" ये वाक्य मैंने एक आठ दस साल के बच्चे के मुंह से सुना...ये सुनकर पहले तो मुझे हंसी आई लेकिन फिर मेरे दिमाग ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया की कैसे हमारे देश के बच्चों पर फूहड़ता भरे गानों का असर कितनी जल्दी आ जाता है ...उन्हें ये नहीं पता होता की वो जो बोल रहे हैं या वो जो गा रहे हैं किस हद तक सही है ..बस उन्हें गाने से मतलब होता है और सही भी है यदि उन्हें यही पता हो की क्या सही है और क्या गलत तो वह बच्चे ही क्यूँ कह्लाने लगे ...हालाँकि इन गानों की समय सीमा बहुत कम होती हे लेकिन जितने समय तक होती है उसी टाइम में बच्चे तो बच्चे बड़ों की भी जुबान पर उनका नाम रहता है... अगर हम पहले की बात करें तो फिल्मों या गानों मैं इतनी फूहड़ता तो नहीं होती थी तब शायद ही किसी बच्चे ने एक नर्सरी कक्षा की कविता को एक गाने के साथ जोड़कर गाया होगा...ऐसा मेरा मानना है..लेकिन देखा जाए तो आजकल के दौर मैं युवा इसी तरह के गानों और फिल्मों को देखना पसंद करते हैं इसलिए यही देखकर निर्माता ऐसी ही पिक्चरें बनाते हैं...इसमें उनकी भी कोई गलती नहीं है कहते भी हैं जो दिखता है वही बिकता है...और फिर उन्हें भी तो पैसा कमाना है ना ..एक बार मैं पहले के समय की बात उठाना चाहूंगी की पहले क्या वो लोग युवा नहीं थे जो बिना फूहड़ता भरी फिल्में पसंद किया करते थे..?क्या उन्हें मज़े करना अच्छा नहीं लगता था ?तब तो हम सभी अपने पूरे परिवार के साथ फिल्मों का आनंद लिया करते थे लेकिन अब वैसी सभ्य फ़िल्में बनती कहाँ हैं कुछ फ़िल्में तो ऐसी ऐसी बनी होती हैं की अगर कोई इंसान अकेला भी देख रहा हो तो भी उसको शर्म आ जाए.................. मेरे हिसाब से इस तरह के गाने और फिल्मे दोनों ही चीज़ें बन्द हो जानी चाहिए सरकार को इसपर रोक लगा देनी चाहिए ............. नम्रता भारती

( नम्रता जीवाजी विवि ग्वालियर में पत्रकारिता की छात्रा हैं )

बुधवार, 10 नवंबर 2010

उल्‍टे अक्षरों से लिख दी भागवत गीता


मिरर इमेज शैली में कई किताब लिख चुके हैं पीयूष

आप इस भाषा कोदेखेंगे तो एकबारगी भौचक्‍क रह जायेंगे. आपको समझ में नहीं आयेगा कि यहकिताब किस भाषा शैली में लिखी हुई है. पर आप ज्‍यों ही शीशे के सामनेपहुंचेंगे तो यह किताब खुद-ब-खुद बोलने लगेगी. सारे अक्षर सीधे नजरआयेंगे. इस मिरर इमेज किताब को दादरी में रहने वाले पीयूष ने लिखा है. इसतरह के अनोखे लेखन में माहिर पीयूष की यह कला एशिया बुक ऑफ वर्ल्‍डरिकार्ड में भी दर्ज है. मिलनसार पीयूष मिरर इमेज की भाषा शैली में कईकिताबें लिख चुके हैं.उनकी पहली किताब भागवद गीता थी. जिसके सभी अठारह अध्‍यायों को इन्‍होंनेमिरर इमेज शैली में लिखा. इसके अलावा दुर्गा सप्‍त, सती छंद भी मिरर इमेजहिन्‍दी और अंग्रेजी में लिखा है. सुंदरकांड भी अवधी भाषा शैली में लिखाहै. संस्‍कृत में भी आरती संग्रह लिखा है. मिरर इमेज शैली मेंहिन्‍दी-अंग्रेजी और संस्‍कृत सभी पर पीयूष की बराबर पकड़ है. 10 फरवरी1967 में जन्‍में पीयूष बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं.डिप्‍लोमा इंजीनियर पीयूष को गणित में भी महारत हासिल है. इन्‍होंने बीजगणित को बेस बनाकर एक किताब 'गणित एक अध्‍ययन' भी लिखी है. जिसमेंउन्‍होंने पास्‍कल समीकरण पर एक नया समीकरण पेश किया है. पीयूष बतातेंहैं कि पास्‍कल एक अनोखा तथा संपूर्ण त्रिभुज है. इसके अलावा एपी अधिकारएगंल और कई तरह के प्रमेय शामिल हैं. पीयूष कार्टूनिस्‍ट भी हैं. उन्‍हेंकार्टून बनाने का भी बहुत शौक है

शनिवार, 8 मई 2010

प्रकृति की अमूल्य रचना है पक्षी

(विश्व प्रवासी पक्षी दिवस पर विशेष)

- अनिल गुलाटी
पूरे विश्व में पिछले 30 सालों में पक्षियों की 21 प्रजातियां लुप्त हो गई, जबकि पहले औसतन सौ साल में एक प्रजाति लुप्त होती थी।यह आंकड़ा भले ही हमें आश्चर्य में डाल दें, पर यह सच है। यदि हम जल्द ही इन्हें बचाने के लिए कोई कदम नहीं उठाते हैं, तो हम प्रकृति की इस अमूल्य रचना को खो देंगे।पक्षियों की, खासतौर से प्रवासी पक्षियों की, हमारे जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका है। प्रवासी पक्षी अपनी लंबी यात्रा से विभिन्न संस्कृतियों और परिवेशों को जोड़ने का काम करते हैं। उन्हें किसी सीमा में नहीं बांधा जा सकता। अपनी लंबी यात्रा में वे प्रत्येक साल पहाड़, समुद्र, रेगिस्तान बहादुरी से पार कर एक देश से दूसरे देश का सफर करते हैं। इस सफर में उन्हें तूफानन, बारिश एवं कड़ी धूप का भी सामना करना पड़ता है। प्रवासी पक्षियों की दुनिया भी अद्भुत है, सबकी अपनी-अपनी विशेषता है। पक्षियों की ज्ञात प्रजातियों में 19 फीसदी पक्षी नियमित रूप से प्रवास करते हैं, इनके प्रवास के समय और स्थान भी अनुमानित होते हैं। प्रवासी पक्षी हमारी दुनिया की जैव विविधता के हिस्सा हैं और कई बार उनके आचार-विचार से हमें यह पता लगाने में आसानी होती है कि प्रकृति में संतुलन है या नहीं।पक्षियों से जैव विविधता को बनाये रखने में मदद मिलती है और इस वजह से हमें दवाइयां, ईंधन, खाद्य पदार्थ, आदि महत्वपूर्ण जरूरतों को पूरा करने में मदद मिलती है। इनमें कुछ ऐसी जरूरतें भी है, जिनके बिना हम अपने जीवन के बारे में सोच नहीं सकते। ऐसी स्थिति में हमें इनके संरक्षण और जैव विविधता को बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाने ही चाहिएं।प्रवासी पक्षियों की इस महत्ता को देखते हुए 2006 से विश्व प्रवासी पक्षी दिवस मनाये जाते का निर्णय लिया गया। इसके तहत प्रवासी पक्षियों की सुरक्षा के लिए अपनाये जाने वाले जरूरी उपायों को लेकर जागरूकता अभियान चलाया जाता है, साथ ही इनके प्रवास को सहज बनाए रखने के उपाय किए जाते हैं। यह दिवस मई के दूसरे शनिवार को मनाया जाता है। 2010 में इस साल इसे 8 मई को पूरी दुनिया मनाया गया । इस दिन पक्षी प्रेमी शैक्षणिक कार्यक्रम, बर्ड वाचिंग, उत्सव आदि आयोजन करके पक्षियों को बचाने की मुहिम चलाते हैं।हर साल इस दिवस के लिए एक विषय तय किया जाता है। इस बार प्रवासी पक्षियों को संकट से बचाएं-सभी प्रजातियों की गणना करें विषय रखा गया है। इसका मुख्य उद्देश्य है- अति गंभीर स्थिति में खत्म होने के कगार पर खड़ी प्रजातियों को केन्द्र में रखते हुए विश्व स्तर पर संकटग्रस्त प्रवासी पक्षियों को बचाने के लिए जागरूकता पैदा करना। संयुक्त राष्ट्र द्वारा 2010 को अंतर्राष्ट्रीय जैव विविधता वर्ष घोषित किया गया। इसे ध्यान में रखते हुए विश्व प्रवासी पक्षी दिवस पर यह जोर दिया गया कि किस तरह से प्रवासी पक्षी हमारी जैव विविधता के हिस्सा हैं और किस तरह से पक्षी की एक प्रजाति के संकट में पड़ने से कई प्रजातियों के लिए संकट खड़ा हो जाता है । अंतत: यह पृथ्वी के पूरे जीव जगत के लिए खतरा बन सकता है। जैव विविधता किसी भी प्रकार के जीवन के लिए महत्वपूर्ण है। इस तरह के दिवस या वर्ष सिर्फ उत्सव के लिए नहीं होते, बल्कि इसे पृथ्वी पर मौजूद जीवन की विविधता को बचाने के लिए निमंत्रण के रूप में लेना चाहिए। पृथ्वी पर जीवन उसकी जैव विविधता के कारण ही है। इसमें असंतुलन सभी प्रजातियों के लिए संकट का कारण हो सकता है। जीवन की उत्पत्ति में लाखों साल लगे हैं और इसी के साथ जैव विविधता की अद्भुत दुनिया का विकास भी हुआ है। यह विविधता सभी प्रजातियों को एक-दूसरे पर आश्रित रहने का प्रमाण है। यह सभी जैविक इकाइयों को उसकी जरूरतें पूरा करती है और मनुष्य के लिए भी यह भोजन, दवाइयां, ईंधन एवं अन्य जरूरतें उपलब्ध कराती है। पर अफसोस की बात है कि मनुष्य की गतिविधियों के कारण पक्षियों की कई प्रजातियां खत्म हो गई और कई खात्मे की कगार पर है। यह ऐसा नुकसान है, जिसकी भरपाई नहीं की जा सकती और अंतत: जीविकोपार्जन पर संकट पैदा करते हुए जीवन को संकट में डाल देगा।विलुप्ति की वर्तमान दर प्राकृतिक विलुप्ति दर से हजार गुना ज्यादा है। कहां सौ साल में पक्षी की एक प्रजाति लुप्त होती थी और कहां अब पिछले 30 साल में 21 प्रजातियां लुप्त हो गई हैं।वैश्विक स्तर पर 192 पक्षी प्रजातियों को अति संकटग्रस्त श्रेणी में वर्गीकृत किया गया है। यह पर्यवास का खत्म होना, शिकार, प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन, मनुष्यों द्वारा बाधा उत्पन्न करना आदि कारकों का परिणाम है, पर यह सभी किसी न किसी तरह से मनुष्यों के कारण ही है।यदि तत्काल कोई कड़े कदम नहीं उठाए गए, तो कुछ सालों बाद हम इन संकटग्रस्त पक्षियों को खो देंगे। इन संकटग्रस्त प्रवासी पक्षियों को बचाने के लिए सबसे महत्वपूर्ण काम यह होगा कि हमें इनके प्राकृतिक पर्यवास को बचाने के साथ-साथ नए पर्यवास विकसित करने होंगे। हमें यह विचार करना चाहिए कि किस तरह से ये अपने जीवन संरक्षण के लिए राजनीतिक, संस्कृतिक एवं भौगोलिक सीमाओं को लांघते हुए एक सुरक्षित रहवास के लिए हजारों किलोमीटर की कठिन सफर को पूरा करते हैं और यदि उन्हें प्रवास के लिए सुरक्षित स्थान नहीं मिलेगा तो क्या होगा? यह जरूरी है कि उनके पर्यवास के पास पर्याप्त सुरक्षा भी हो ताकि उनका शिकार न किया जा सके। भोपाल की झीलें हो या फिर इन्दौर की झीलें या अन्य छोटे-बड़े नम क्षेत्र, हमें उनके प्राकृतिक स्वरूप के साथ छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए।निश्चय ही ऐसा करके हम न केवल पक्षियों का संरक्षण करेंगे बल्कि जैव विविधता को बचाते हुए अपनी भावी पीढ़ी के जीवन को ही बचाने का काम करेंगे।
इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।

रविवार, 4 अप्रैल 2010

आँखों को बेनूर कर रहा पानी

लेखक: मीनाक्षी अरोड़ा

जन्मजात अंधापनबिहार के भोजपुर जिले के बीहिया से अजय कुमार, शाहपुर के परशुराम, बरहरा के शत्रुघ्न और पीरो के अरुण कुमार ये लोग भले ही अलग-अलग इलाकों के हैं, पर इनमें एक बात कॉमन है, वो है इनके बच्चों की आंखों की रोशनी। इनके साथ ही सोलह और अन्य परिवारों में जन्में नवजात शिशुओं की आँखों में रोशनी नहीं है। इनकी आँखों में रोशनी जन्म से ही नहीं है। बिहार के सबसे ज्यादा आर्सेनिक प्रभावित भोजपुर जिले में पिछले कुछ दिनों के अंदर 50 ऐसे बच्चों के मामले मीडिया में छाये हुए हैं जिनकी आँखों का नूर कोख में ही चला गया है। मामला प्रकाश में लाने वाले आरा के एक विख्यात नेत्र विशेषज्ञ हैं- डॉ। एसके केडिया, जो कहते हैं कि "जन्मजात अंधापन के दो मामले लगभग छह महीने पहले मेरे अस्पताल में आये थे। उस समय मुझे कुछ गलत नहीं लगा था। लेकिन जब इस तरह के मामले पिछले तीन महीने में नियमित अंतराल पर मेरे पास आने शुरू हुए तो मुझे धीरे-धीरे यह एहसास हुआ कि यह एक नई चीज है, मेरे 20 साल के कैरियर में जन्मजात अंधापन के मामले इतनी बड़ी संख्या में कभी नहीं आये थे।“ भोजपुर के लोग अपने नवजात शिशुओं को लेकर डरे सहमे से अस्पताल पहुँच रहे हैं। वे नहीं जानते कि उनका नन्हा सा बच्चा देख सकता है कि नहीं। क्योंकि शुरुआत में बच्चे में इस तरह के कोई लक्षण दिखाई नहीं देते कि वे देख पा रहे हैं या नहीं। लोग अपना जिला छोड़कर राजधानी पटना के अस्पतालों में भी बच्चों की जांच करा रहे हैं। वे अपने बच्चों के बारे में किसी समस्या को सार्वजनिक भी नहीं करना चाहते क्योंकि इससे उनके सामाजिक ताने-बाने पर भी असर पड़ेगा।सरकार और उससे जुड़ी हुई विभिन्न स्वास्थ्य एजेन्सियां इस तरह के मामलों के पीछे का सही कारण पता करने में पूरी तरह असफल सिद्ध हुई हैं। लोगों को आशंका है कि इसके लिये पानी में मिला आर्सेनिक जिम्मेदार है। हालांकि भोजपुर के जिला सिविल सर्जन डॉ. केके लाभ कहते हैं कि मोबाइल फोन के टावरों से निकला इल्क्ट्रोमैग्नेटिक रेडियेशन भी बच्चों के अंधेपन का कारण हो सकता है। हम लोग सही कारण जानने की कोशिश कर रहे हैं। इस पूरे मामले में प्रमाणित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता है पर एक चीज तो साफ है कि पर्यावरणीय प्रदूषण ही मुख्य कारण नजर आ रहा है।अभी तक देखा गया है कि आर्सेनिक युक्त जल के निरंतर सेवन से लोग शारीरिक कमजोरी, थकान, तपेदिक, (टीबी.), श्वाँस संबंधी रोग, पेट दर्द, जिगर एवं प्लीहा में वृद्धि, खून की कमी, बदहजमी, वजन में गिरावट, आंखों में जलन, त्वचा संबंधी रोग तथा कैंसर जैसी बीमारियों की चपेट में आ रहे हैं। पर गर्भ में ही बच्चों के अंधा होने की घटनाओं का होना एकदम नया मोड़ है।भोजपुर जिले का मुख्यालय आरा में आरोग्य संस्था के डॉ मृत्युंजय कुमार कई आशंकाएं व्यक्त करते हैं। वे कहते हैं कि पहला कारण तो वंशानुगत हो सकता है। दूसरा कारण हो सकता है कि गर्भावस्था के दौरान दी जा रही किसी गलत दवा का असर हो। तीसरा यह भी हो सकता है कि आर्सेनिक से प्रभाव का यह कोई नया रूप हो, क्योंकि आर्सेनिक मानव के तंत्रिका तंत्र और स्नायु तंत्र पर असर तो करता ही है। भोजपुर, बिहार में सबसे अधिक आर्सेनिक प्रभावित जिलों में से एक है। पिछले साल बिहार में कराये गए एक सर्वे में 15 जिलों के भूजल में आर्सेनिक के स्तर में खतरनाक वृद्धि दर्ज की गई थी। आर्सेनिक प्रभावित 15 जिलों के 57 विकास खंडों के भूजल में आर्सेनिक की भारी मात्रा पायी गई थी। सबसे खराब स्थिति भोजपुर, बक्सर, वैशाली, भागलपुर, समस्तीपुर, खगड़िया, कटिहार, छपरा, मुंगेर और दरभंगा जिलों में है। समस्तीपुर के एक गाँव हराईछापर में भूजल के नमूने में आर्सेनिक की मात्रा 2100 पीपीबी पायी गई जो कि सर्वाधिक है। जबकि भारत सरकार के स्वास्थ्य मानकों के अनुसार पेयजल में आर्सेनिक की मात्रा 50 पीपीबी से ज्यादा नहीं होनी चाहिए और विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 10 पीपीबी से ज्यादा नहीं होना चाहिए। पानी में मिला आर्सेनिक बिहार ही नहीं पश्चिम बंगाल, पूर्वी उत्तरप्रदेश, पंजाब सहित भारत के विभिन्न हिस्सों में लोगों की जिंदगी बर्बाद कर रहा है। आज पानी कहीं कैंसर तो कहीं बच्चों में सेरेब्रल पाल्सी, शारीरिक-मानसिक विकलांगता बाँट रहा है। माँ के गर्भ में ही बच्चों से आँखे छीन लेने वाले पानी की एक नई सच्चाई हमारे सामने आने वाली है। हालांकि यह सच अभी आना बाकी है कि असली कारण क्या हैं पर जो भी हैं वे पानी- पर्यावरण प्रदूषण के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ेंगे। लेकिन इसके साथ यह भी एक कड़वा सच है कि इन सब के पीछे इन्सान ही जिम्मेदार है।धरती में जब पानी बहुत नीचे चला जाता है तब पानी कम, खतरनाक केमिकल ज्यादा मिलने लगते हैं। तभी पानी में फ्लोराइड, नाइट्रेट, आर्सेनिक और अब तो यूरेनियम भी मिलने लगा है। जब पानी आसमान से बरसता है तब उसमें कोई जहर नहीं होता। जब बारिश का पानी झीलों, तालाबों, नदियों में इकट्ठा होता है तब हमारे पैदा किए गए कचरे से प्रदूषित हो जाता है। पहले पानी झीलों, तालाबों, नदियों से धरती में समा जाता था लेकिन अब पानी के लिये सारे रास्ते हम धीरे-धीरे बंद करते जा रहे हैं। धरती में पानी कम जा रहा है जितना हम डालते हैं उसका कई गुना निकाल रहे हैं। ऐसे में धरती की खाली होती कोख जहर उगल रही है और माओं की कोख जन्मना अंधी संतानें। हालात धीरे-धीरे ऐसे होते जा रहे हैं कि धरती की कोख सूनी होती जा रही है। जमीन के नीचे पानी काफी कम हो गया है और जितना पानी बचा है उसकी एक-एक बूँद लोग निचोड़ लेना चाहते हैं। धरती की कोख को चीर कर उसके हर कतरे को लोग पी जाना चाहते हैं। सरकारें और उनकी नीतियां नलकूप, बोरवेल, डीपबोरवेल लगा-लगाकर धरती की कोख से सबकुछ निकाल लेना चाहती हैं।सूनी धरती, सूखी धरती से जब पानी बहुत नीचे चला जाता है तब पानी कम, खतरनाक केमिकल ज्यादा मिलने लगते हैं। तभी पानी में फ्लोराइड, नाइट्रेट, आर्सेनिक और अब तो यूरेनियम भी मिलने लगा है। जब पानी आसमान से बरसता है तब उसमें कोई जहर नहीं होता। जब बारिश का पानी झीलों, तालाबों, नदियों में इकट्ठा होता है तब हमारे पैदा किए गए कचरे से प्रदूषित हो जाता है। पहले पानी झीलों, तालाबों, नदियों से धरती में समा जाता था लेकिन अब पानी के लिये सारे रास्ते हम धीरे-धीरे बंद करते जा रहे हैं। धरती में पानी कम जा रहा है जितना हम डालते हैं उसका कई गुना निकाल रहे हैं। ऐसे में सूखी होती धरती की कोख अब अमृत रूप पानी नहीं जहर उगल रही है। धरती की खाली होती कोख जहर उगल रही है और माओं की कोख जन्मना अंधी संतानें। यह नहीं होना चाहिए, फिर क्या होना चाहिए?

रविवार, 6 दिसंबर 2009

ज्ञानपीठ समाचार

ज्ञानपीठ समाचार का नया अंक मिला है। यह भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन के विक्रय विभाग का मासिक बुलेटिन है। भारतीय साहित्य में हो रही गतिविधियों एवं भारतीय ज्ञानपीठ के नए-पुराने प्रकाशनों की जानकारी व समीक्षा के लिए यह एक उपयोगी बुलेटिन है। बुलेटिन में कुछ किताबों के महत्वपूर्ण अंश व 'ज्ञानोदय' के आगामी विशेषांकों की जानकारी दी गयी है। बुलेटिन का सालाना शुल्क मात्र दस रूपए है।

विश्वास की स्याही...

ग्वालियर शहर में रहते हुए डॉ. आशीष द्विवेदी ने पत्रकारिता शिक्षण में खासा योगदान दिया है। इन दिनों डॉ. द्विवेदी सागर में पत्रकारिता का एक संस्थान इंक मीडिया स्कूल ऑफ़ जर्नलिज्म के नाम से चला रहे हैं। इंक मीडिया स्कूल ऑफ़ जर्नलिज्म के विद्यार्थियों का प्रायोगिक पत्र इंक टाइम्स के नाम से प्रकाशित हो रहा है। हाल ही में मिले इस के अंक को देखकर पत्रकारिता शिक्षण का महत्व व व्यावहारिक ज्ञान की महत्ता को समझा जा सकता है। इंक टाइम्स का आदर्श वाक्य " विश्वास की स्याही..." है। अंक में फीचर आधारित समाचारों को विशेषरूप से शामिल किया गया है कुछ प्रमुख और आम हस्तियों के साक्षात्कार व समसामयिक विषयों पर लेख और समाचारों को स्थान दिया गया है। यदि मुद्रण की गुणवत्ता व कुछ अन्य त्रुटियों को नज़रअंदाज़ कर देखा जाए तो इंक टाइम्स प्रायोगिक पत्र के रूप में संस्थान का एक उल्लेखनीय व व्यावहारिक प्रयास है मिथलेश साहू, बसंत शर्मा, धर्मेन्द्र दुबे व रेशु जैन की स्टोरी पठनीय और मानकों के अनुरूप हैं। बधाई

शनिवार, 5 दिसंबर 2009

मीडिया मूल्यों पर निगरानी

कमल दीक्षित का नाम देश के गिनेचुने फीचर विशेषज्ञों में शुमार किया जाता है। पत्रकारिता और पत्रकारिता शिक्षण से लेकर पत्रकारिता को धर्म बनाने व उसके मूल्यों की रक्षा के लिए श्री दीक्षित ने कई ऐसे प्रयास किये हैं जो मील का पत्थर साबित हुए हैं। सोसायटी ऑफ़ मीडिया इनिसिएटिव फॉर वेल्यूज़ द्वारा प्रकाशित " मुल्यानुगत मीडिया " का नया अंक हाल ही में मुझे प्राप्त हुआ है " मुल्यानुगत मीडिया " पत्रिका व न्यूज़ लेटर के बीच का प्रकाशन है। सोलह प्रष्ठीय इस प्रकाशन में मीडिया क्षेत्र में होने वाली गतिविधियों के साथ - साथ कुछ मीडिया कर्मियों के अनुभव व साक्षात्कार भी शामिल हैं। श्री दीक्षित नें सम्पादकीय में जिला स्तर पर पत्रकारिता का स्वरुप सुधारने व उसके मूल्यों को संरक्षित करने के लिए पत्रकारिता प्रशिक्षण पर जोर दिया है वे लिखते हैं " बदली परिस्थितियों में सत्ता का केंद्र राज्य की राजधानी के साथ ही जिला भी बन चुका है " यह वाक्य आंचलिक पत्रकारिता के स्वर्णिम व चुनौती भरे भविष्य की ओर इंगित करता है। मुल्यानुगत मीडिया को www.mediainitiative.org पर भी पढ़ा जा सकता है कुल मिला कर मीडिया मूल्यों को बचाए रखने का यह एक अमूल्य ओर श्लाघनीय प्रयास है ।

शनिवार, 31 अक्टूबर 2009

आगे बढ़ मर्दाना लिख

हमारे एक अज़ीज हैं शिवप्रताप सिंह जी, पत्रकारिता के साथ-साथ साहित्य (पढने और लिखने) में भी ख़ासा दख़ल रखते हैं आज उनसे बात हो रही थी मैंने इन दिनों अपने उदास रहने का जिक्र उनसे किया। उन्होंने अपनी एक रचना सुनते हुए मेरे हौसले को बढ़ाया । शिव ने यह रचना नवम्बर 2005 में लिखी थी अपनीबात के पाठकों की नज़र कर रहा हूँ । यह कहते हुए कि आगे बढ़ मर्दाना लिख अगर पसंद आये तो शिव को 09425127676 पर एक एसएमएस कर सीधे बधाई भी दे सकते हैं ।

आगे बढ़ मर्दाना लिख

आज प्यार का तराना लिख

खुद को तू दीवाना लिख

बिगड़ी लगे हवा शहर की

इंसानियत मरजाना लिख

घरोंदे पर भी नज़र रहे गर

चिड़िया का आना- जाना लिख

हिम्मत दिखाए गर कोई हसीना

आगे बढ़ मर्दाना लिख ...!

शुक्रवार, 30 अक्टूबर 2009

एक प्यार ही तो



बड़ी छोटी उम्र में सौंदर्यबोध हो गया था। कोर्स के अलावा सबकुछ पढने -लिखने का शगल था। बीए कर रहा था उन्ही दिनों हिन्दुस्तान पटना (2 जनवरी 1997) के अंक में रमेश ऋतंभरा की कविता पढ़ी । मन को छूने वाली थी। कविता यहाँ प्रस्तुत है -


एक प्यार ही तो


एक दिन में पुरानी पढ़ जाती है दुनिया


एक दिन में उतर जाता है रंग


एक दिन में मुरझा जाते हैं फूल


एक दिन में भूल जाता है दुःख


बस ,


एक प्यार ही तो है


जो रह जाता है बरसों - बरस याद दोस्तों

शुक्रवार, 23 अक्टूबर 2009

झारखरिया बने विशेष संवाददाता

दैनिक भास्कर ग्वालियर ने अपने ग्वालियर संस्करण में चार पदोन्नतियां की हैं. भास्कर ग्वालियर को लम्बे समय से बतौर चीफ रिपोर्टर अपनी सेवाएं दे रहे रवींद्र झारखरिया को विशेष संवाददाता बनाया गया है. वहीं दिनेश गुप्ता को चीफ रिपोर्टर और प्रवीण चतुर्वेदी एवं राजेश दुबे को डिप्टी चीफ रिपोर्टर बनाया गया है . सभी को बधाई

सोमवार, 28 सितंबर 2009

अहम पर स्वयं (संयम) की जीत के पर्व दशहरा की हार्दिक शुभकामनायें.

गुरुवार, 2 जुलाई 2009

एक ग्रीन लाइट के इंतज़ार में

-शिरीष खरे
मुंबई के फ़ुटपाथों पर न जाने कितनी बार रेड लाइट ग्रीन लाइट में बदलती है, और ग्रीन लाइट , रेड लाइट में.... लेकिन इन ट्रैफिक लाइट के नीचे अपनी ज़िन्दगी गुजर रहे लाखों बच्चों और महिलाओं को आज भी अपनी जिंदगी में एक ग्रीन लाइट होने का इंतज़ार है... "मेरी जैसी कई औरतों को अपना शरीर बार-बार बेचना पड़ता है।" एक औरत की जुबान से पहली बार ऐसा सुनकर मैं झिझक गया। सपना ने बेझिझक आगे कहा- ‘‘पेट के लिए करना पड़ता है। ईज्जत के लिए घर में बैठ सकती हूं। लेकिन...’’ इसके बाद वह चुपचाप एक गली में गई और गुम हो गई.
देश के कोने-कोने से हजारों मजदूर सपनों के शहर मुंबई आते हैं. लेकिन उनके संघर्ष का सफर जारी रहता है. इनमें से ज्यादातर मजदूर असंगठित क्षेत्र से होते हैं. सुबह-सुबह शहर के नाकों पर मजदूर औरतें भी बड़ी संख्या दिखाई देती हैं. इनमें से कईयों को काम नहीं मिलता. इसलिए कईयों को 'सपना' बनना पड़ता है. तो क्या "पलायन" का यह रास्ता "बेकारी" से होते हुए "देह-व्यापार" को जाता है ?
शहर के उत्तरी तरफ, संजय गांधी नेशनल पार्क के पास दिहाड़ी मजदूरों की बस्ती है. यहां के परिवार स्थायी घर, भोजन, पीने लायक पानी और शिक्षा के लिए जूझ रहे हैं. लेकिन विकास योजनाओं की हवाएं यहां से होकर नहीं गुजरतीं. इन्होंने अपनी मेहनत से कई आकाश चूमती ईमारतों को बनाया है. खास तौर से नवी मुंबई की तरक्की के लिए कम अवधि के ठेकों पर अंगूठा लगाया है. इन्होंने यहां की कई गिरती ईमारतों को दोबारा खड़ा किया है.
यहां आमतौर पर औरत को 1,00 रूपए और मर्द को 1,30 रूपए/दिन के हिसाब से मजदूरी मिलती है. ठेकेदार और मजदूरों के आपसी रिश्तों से भी मजदूरी तय होती है. एक मजदूर को कम से कम 2,000 रूपए/महीने की जरूरत पड़ती है. मतलब उसका 1 दिन का खर्च 66 रूपए हुआ. इतनी आमदनी पाने के लिए परिवार की औरत भी मजदूरी को जाती है. उसे महीने में कम से कम 20 दिन काम चाहिए. लेकिन 10 दिन ही काम मिलता है. इस तरह एक औरत के लिए 1,000 रूपए/महीना कमाना मुश्किल होता है.
यह मलाड नाके का दृश्य है. थोड़ी रात, थोड़ी सुबह का समय है. सड़क के कोने और मेडीकल के ठीक सामने मजदूरों के दर्जनों समूह हैं. यहां औरत-मर्द एक-दूसरे के आजू-बाजू बैठकर बतियाते हैं. यह काम पाने की सूचनाओं का अहम अड्डा है. यहां सुबह 11 बजे तक भीड़ रहती है. उसके बाद मजदूर काम पर जाते हैं, जिन्हें काम नहीं मिलता वह घर लौटते आते हैं. लेकिन सेवंती खाली नहीं लौट सकती. इसलिए उसकी सुबह, रात में बदल जाती है. उसे नाके से जुड़ी दूसरी गलियों में पहुंचकर देह के ग्राहक ढ़ूढ़ने होते हैं.
आज रविवार होने के बावजूद उसे 3 घण्टे से कोई खरीददार नहीं मिल रहा है. इस व्यापार में दलाल कुल कमाई का बड़ा हिस्सा निगल जाते हैं. इसलिए सेवंती दलाल की मदद नहीं चाहती. सेवंती जैसी दूसरी औरतों को भी ग्राहक के एक इशारे का इंतजार है. इनकी उम्र 14 से 45 साल है. यह 80 से 1,50 रूपए में सौदा पक्का कर सकती हैं. अगले 24 घण्टों में 4 ग्राहक भी मिल गए तो बहुत हैं. यह अपने ग्राहकों से दोहरे अर्थो वाली भाषा में बात करती हैं. ऐसा पुलिस और रहवासियों से बचने के लिए किया जाता है. यह अपने असली नाम छिपा लेती हैं. इन्हें यहां सुरक्षा का एहसास नहीं है. इन्हें शारारिक और मानसिक यातनाओं का डर भी सता रहा है. यहां से कोई गर्भवती तो कोई गंभीर बीमारी की शिकार बन सकती है.
देह-व्यापार से जुड़ी तारा ने बताया- ‘‘यहां 100 में से करीब 70 औरतों की उम्र 30 साल से कम ही है. इसमें से भी करीब 25 औरतें मुश्किल से 18 साल की हैं. अब कम उम्र के लड़कियों की संख्या बढ़ रही है. 35 साल तक आते-आते औरत की आमदनी कम होने लगती है. एक औरत अपने को 20 साल से ज्यादा नहीं बेच सकती. आधे से ज्यादा औरतें पैसों की कमी के कारण यह पेशा अपनाती हैं. कुछेक औरतों पर दबाव रहता है.’’ पीछे खड़ी कुसुम ने कहा-‘‘मुझे तो बच्चे और घर-बार भी संभालना होता है. मेरे सिर पर तो दबाव के ऊपर दबाव है.’’ यहां ज्यादातर औरतों की यही परेशानी है.
माधुरी का पिता उसे मजदूरी के लिए भेजता है. लेकिन वह मजदूरी के साथ अपने शरीर से भी पैसा कमा लेती है. गिरिजा अपने भाई की बेकारी के दिनों का एकमात्र सहारा है. सुब्बा ने पति के एक्सीटेंट के बाद गृहस्थी का बोझ संभाल लिया है. जोया ने छोटी बहिन की शादी के लिए थोड़ा-थोड़ा पैसा बचाना शुरू कर दिया है. लेकिन उसकी बहिन पढ़ाई के लिए अब मुंबई आना चाहती है. जोया अपनी सच्चाई छिपाना चाहती है. उसे अपनी ईज्जत के तार-तार होने की आशंका है. नगमा 45 साल के पार हो चुकी है, अब उसकी 14 साल की बेटी बड़की कमाती है. बड़की बाल यौन-शोषण का जीता जागता रुप है.
यहां कदम-कदम पर कई बड़कियां खड़ी हैं. यह चोरी-छिपे इस कारोबार में लगी हैं इसलिए कुल बड़कियों का असली आकड़ा कोई नहीं जानता. कोई बंगाल से है, कोई आंध्रप्रदेश से है तो कोई महाराष्ट्र से. लेकिन इनके दुख और दुविधाओं में ज्यादा फर्क नहीं है. इन्होंने अपनी चिंताओं को मेकअप की गहरी परतों से ढ़क लिया है.
मोनी ने बताया- ‘‘इस पेशे से हमारा शरीर जुड़ता है, मन नहीं. हम पैसों के लिए अलग-अलग मर्दो को अपना शरीर बेचते हैं. लेकिन कई मर्द ऐसे भी हैं जो जिस्मफरोशी के लिए बार-बार ठिकाने बदलते हैं. अगर हमें गलत समझा जाता है तो उन्हें क्यों नही ?’’मोनी का सवाल देह-व्यापार के सभी पहलुओं पर शिनाख्त करने की मांग करता है.
यह एक अहम मुद्दा है. लेकिन इसे समाज की तरह सरकार ने भी अनदेखा किया हुआ है. इसे नैतिकता, अपराध या स्वास्थ्य के दायरों से बाँध दिया गया है. देखा जाए तो देह-व्यापार का ताल्लुक गरीबी, बेकारी और पलायन जैसी उलझनों से है. लेकिन इन उलझनों के आपसी जुड़ावों की तरफ ध्यान नहीं जाता. जबकि ऐसे आपसी जुड़ावों को एक साथ ढ़ूढ़ने और सुलझाने की जरूरत है.
भारत में देह-व्यापार की रोकथाम के लिए ‘भारतीय दण्डविधान, 1860’ से लेकर ‘वेश्यावत्ति उन्मूलन विधेयक, 1956’ बनाये गए. फिलहाल कानून के फेरबदल पर भी विचार चल रहा है. लेकिन इस स्थिति की जड़े तो समाज की भीतरी परतों में छिपी हैं. इसकी रोकथाम तो समाज के गतिरोधों को हटाने से होगी. इस व्यापार से जुड़ी औरतें दो जून की रोटी के लिए लड़ रही हैं. इसलिए विकास नीति में लोगों के जीवन-स्तर को उठाने की बजाय उन्हें जीने के मौके देने होंगे. देह-व्यापार के गणित को हल करने के लिए उन्हें अपनी जगहों पर ही काम देने का फार्मूला ईजाद करना होगा.
सरकार ने पलायन को रोकने के लिए 2005 को ‘राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना’ चलाई. इसके जरिए साल में 100 दिनों के लिए ‘‘हर हाथ को काम और पूरा दाम’’ का नारा दिया गया. लेकिन इस योजना में फरवरी 2006 से मार्च 2007 के बीच औसतन 18 दिनों का ही काम मिला. साल 2006-07 में 8,823 करोड़, 2007-08 में 15,857 करोड़ और 2008-09 में 17,076 करोड़ रूपए खर्च हुए. मतलब एक जिले में औसतन 30 करोड़ रूपए. इसका भी एक बड़ा भाग भष्ट्राचार में स्वाहा हो गया. कुल मिलाकर मजदूरों को 30-40 दिनों का ही काम मिल पाता है. इसलिए 365 दिनों के काम की तलाश में मजदूरों का पलायन जारी है. दूरदर्शन के प्रोग्राम के बीच 'रुकावट के लिए खेद' जैसा संदेश चर्चा का विषय रहा है. ‘‘हर हाथ को काम और पूरा दाम’’ के नारे के आगे अब यही संदेश लगा देना चाहिए.
पलायन की रफ़्तार के मुताबिक शहर का देह-व्यापार भी तेजी से फल-फूल रहा है। बात चाहे आजादी के पहले की हो या बाद की. अब यह किस्सा चाहे कलकत्ता का हो या मुंबई का. मुंबई में ही सड़क चाहे ग्राण्ट रोड की हो या मीरा रोड की. उस चैराहे पर मूर्ति चाहे अंबेडकर की लगी हो या मदर टेरेसा की. बस्ती चाहे कमाठीपुरा की हो या मदनपुरा की. यहां आपको रूकमणी (हिन्दू) भी मिलेगी और रूहाना (मुसलमान) भी. लेकिन जिन्हें अपने धर्म, क्षेत्र, जुबान या जाति पर नाज है, वह कहीं नहीं दिखते. यहां के रेड सिग्नलों पर रूकी औरतों की जिंदगी बदलाव चाहती है. तशकरी के तारों से जुड़ने के पहले, उन्हें एक ग्रीन सिग्नल का इंतजार है.
(स्टोरी में देह-व्यापार के लिए मजबूर औरतों की पहचान छिपाने के लिए उनके नाम बदल दिये गए हैं)
शिरीष खरे बच्चों के लिए कार्यरत संस्था CRY ‘चाईल्ड राईट्स एण्ड यू’ के ‘संचार विभाग’ से जुड़े हैं और दोस्त ब्लॉग के संचालक हैं।

मंगलवार, 23 जून 2009

पत्रकार व्याख्याताओं की आवश्यकता है

देश के प्रतिष्ठित शारीरिक शिक्षा विवि लक्ष्मीबाई राष्ट्रीय शारीरिक शिक्षा विवि, ग्वालियर के खेल प्रबंधन एवं खेल पत्रकारिता विभाग में व्याख्याताओं की आवश्यकता है. पत्रकारिता शिक्षा से जुड़े लोग इन पदों हेतु साक्षात्कार दे सकते हैं. साक्षात्कार का आयोजन दिनांक 30 जून को विवि परिसर में प्रातः 10 बजे से किया जायेगा. अनुबंध आधारित इन पदों के लिए प्रतिमाह रूपए 10,000 (दस हज़ार) मानदेय निर्धारित किया गया है. अधिक जानकारी के लिए यहां क्लिक करें. अथवा विवि के फ़ोन न. -0751-4000963 पर संपर्क करें.