"मछली जल की रानी है और शीला की जवानी है" ये वाक्य मैंने एक आठ दस साल के बच्चे के मुंह से सुना...ये सुनकर पहले तो मुझे हंसी आई लेकिन फिर मेरे दिमाग ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया की कैसे हमारे देश के बच्चों पर फूहड़ता भरे गानों का असर कितनी जल्दी आ जाता है ...उन्हें ये नहीं पता होता की वो जो बोल रहे हैं या वो जो गा रहे हैं किस हद तक सही है ..बस उन्हें गाने से मतलब होता है और सही भी है यदि उन्हें यही पता हो की क्या सही है और क्या गलत तो वह बच्चे ही क्यूँ कह्लाने लगे ...हालाँकि इन गानों की समय सीमा बहुत कम होती हे लेकिन जितने समय तक होती है उसी टाइम में बच्चे तो बच्चे बड़ों की भी जुबान पर उनका नाम रहता है... अगर हम पहले की बात करें तो फिल्मों या गानों मैं इतनी फूहड़ता तो नहीं होती थी तब शायद ही किसी बच्चे ने एक नर्सरी कक्षा की कविता को एक गाने के साथ जोड़कर गाया होगा...ऐसा मेरा मानना है..लेकिन देखा जाए तो आजकल के दौर मैं युवा इसी तरह के गानों और फिल्मों को देखना पसंद करते हैं इसलिए यही देखकर निर्माता ऐसी ही पिक्चरें बनाते हैं...इसमें उनकी भी कोई गलती नहीं है कहते भी हैं जो दिखता है वही बिकता है...और फिर उन्हें भी तो पैसा कमाना है ना ..एक बार मैं पहले के समय की बात उठाना चाहूंगी की पहले क्या वो लोग युवा नहीं थे जो बिना फूहड़ता भरी फिल्में पसंद किया करते थे..?क्या उन्हें मज़े करना अच्छा नहीं लगता था ?तब तो हम सभी अपने पूरे परिवार के साथ फिल्मों का आनंद लिया करते थे लेकिन अब वैसी सभ्य फ़िल्में बनती कहाँ हैं कुछ फ़िल्में तो ऐसी ऐसी बनी होती हैं की अगर कोई इंसान अकेला भी देख रहा हो तो भी उसको शर्म आ "मछली जल की रानी है और शीला की जवानी है" ये वाक्य मैंने एक आठ दस साल के बच्चे के मुंह से सुना...ये सुनकर पहले तो मुझे हंसी आई लेकिन फिर मेरे दिमाग ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया की कैसे हमारे देश के बच्चों पर फूहड़ता भरे गानों का असर कितनी जल्दी आ जाता है ...उन्हें ये नहीं पता होता की वो जो बोल रहे हैं या वो जो गा रहे हैं किस हद तक सही है ..बस उन्हें गाने से मतलब होता है और सही भी है यदि उन्हें यही पता हो की क्या सही है और क्या गलत तो वह बच्चे ही क्यूँ कह्लाने लगे ...हालाँकि इन गानों की समय सीमा बहुत कम होती हे लेकिन जितने समय तक होती है उसी टाइम में बच्चे तो बच्चे बड़ों की भी जुबान पर उनका नाम रहता है... अगर हम पहले की बात करें तो फिल्मों या गानों मैं इतनी फूहड़ता तो नहीं होती थी तब शायद ही किसी बच्चे ने एक नर्सरी कक्षा की कविता को एक गाने के साथ जोड़कर गाया होगा...ऐसा मेरा मानना है..लेकिन देखा जाए तो आजकल के दौर मैं युवा इसी तरह के गानों और फिल्मों को देखना पसंद करते हैं इसलिए यही देखकर निर्माता ऐसी ही पिक्चरें बनाते हैं...इसमें उनकी भी कोई गलती नहीं है कहते भी हैं जो दिखता है वही बिकता है...और फिर उन्हें भी तो पैसा कमाना है ना ..एक बार मैं पहले के समय की बात उठाना चाहूंगी की पहले क्या वो लोग युवा नहीं थे जो बिना फूहड़ता भरी फिल्में पसंद किया करते थे..?क्या उन्हें मज़े करना अच्छा नहीं लगता था ?तब तो हम सभी अपने पूरे परिवार के साथ फिल्मों का आनंद लिया करते थे लेकिन अब वैसी सभ्य फ़िल्में बनती कहाँ हैं कुछ फ़िल्में तो ऐसी ऐसी बनी होती हैं की अगर कोई इंसान अकेला भी देख रहा हो तो भी उसको शर्म आ जाए.................. मेरे हिसाब से इस तरह के गाने और फिल्मे दोनों ही चीज़ें बन्द हो जानी चाहिए सरकार को इसपर रोक लगा देनी चाहिए ............. नम्रता भारती
( नम्रता जीवाजी विवि ग्वालियर में पत्रकारिता की छात्रा हैं )
1 टिप्पणी:
बात तो आपने बिलकुल सही लिखी है... थोड़ा पोस्ट संपादित कर लें. एक ही पैराग्राफ़ दो बार छपा है.
एक टिप्पणी भेजें